गौतम बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग

 बुद्धं शरणं गच्छामि

जब सिद्धार्थ ने कड़ी तपस्या कर बौद्ध गया वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति की तो वे महात्मा बुद्ध बन गए और फिर अपनी कठिन साधना से प्राप्त ज्ञान के जरिए उन्होंने जन कल्याण के लिए जो उपदेश दिया वह अष्टांगिक मार्ग के नाम से जाना गया। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के साथ चार आर्य सत्य बताये। उनका पहला सत्य है बुढ़ापा दुःख है। मृत्यु दुःख है। हम जो इच्छा करते हैं उसकी प्राप्ति न होना दुःख है।  दूसरा सत्य दुःख का कारण तृष्णा है। तृष्णा ही दुःख का मूल कारण है। तीसरा सत्य है कि तृष्णा के त्याग से ही दुःख का निरोध सम्भव है। जब तृष्णा का सर्वनाश होता है तभी दुःख का अंत होता है। तृष्णा की जननी इच्छा है और जब तक इसकी पूर्ति नहीं होती यह दुःख ही देती रहती है। चौथा सत्य है आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलने से आदमी सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। उन्होंने दूसरों के दुःख को देखकर घर छोड़ दिया था और जंगल में एक वृक्ष के नीचे बिना कुछ खाए पिए कठिन तपस्या करने लगे थे उसी दौरान पास के गाँव से एक स्त्री उसी वृक्ष की पूजा के लिए वहाँ आई तो उन्होंने बुद्ध के शरीर को देखकर कहा कि “ हे तपस्वी ! वीणा के तारों को इतना भी मत कसो कि वह टूट जाये और इतना भी ढीला न छोडो कि उनसे कोई स्वर ही न निकले ।” तभी बुद्ध ने जाना कि “समत्वं योग उच्यते” अर्थात सफलता-असफलता व सुख-दु:ख से विचलित हुए बिना कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है,तो वही योग है। अतः तभी से उन्होंने मध्यम मार्ग का अनुसरण किया। 

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बौद्ध धर्म के अनुयायी इसी मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्‍त करते हैं। बुद्ध ने कहा है कि यदि मनुष्य अभ्यास और जाग्रति के प्रति समर्पित नहीं तो वह कहीं भी नहीं पहुँच सकता। उन्होंने अष्टांगिक मार्ग को सर्वोपरि इसलिए बताया है क्योंकि यह जीवन को हर प्रकार से आनंदमय और शांतिपूर्ण बनाता है बुद्ध ने इस दुख; निरोध प्रतिपद अष्टांगिक मार्ग को “मध्यमा प्रतिपद” या मध्यम मार्ग की संज्ञा दी है  बुद्ध द्वारा बताए गए इन 8 मार्गों का अलग-अलग मतलब है। ये सभी सम्यक शब्द से शुरू होते है जिसका अर्थ होता है सही या अच्छा। 

अष्टांगिक मार्ग को तीन भागों में विभक्त किया गया है। शील, समाधि और प्रज्ञा। 

शील यानि सदाचार -भाग (शील-स्कंध) के तीन अंग हैं - सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत तथा सम्यक आजीविका। इसी प्रकार समाधि यानि एकाग्रता भाग (समाधि -स्कंध) के तीन अंग हैं - सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। और प्रज्ञा यानि दिव्य दृष्टि -भाग (=प्रज्ञा-स्कंध) के दो अंग हैं -सम्यक दृष्टि तथा सम्यक संकल्प। साधक अपनी साधना के प्रसंग में शील, समाधि तथा प्रज्ञा को विकसित करता है, पुष्ट करता है। इनमे से शील से ही साधना का प्रारंभ होता है, समाधि से साधना का विकास होता है। प्रज्ञा के सहारे साधक अपने दुखनिरोध लक्ष्य को प्राप्त करता है। इस संसार में तृष्णा को नष्ट करने के लिए मनुष्य को शील में प्रतिष्ठित होकर समाधि एवं प्रज्ञा का विकास करना चाहिए।

सम्यक दृष्टि : चार आर्य सत्य में विश्वास करना

सम्यक संकल्प : मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना

सम्यक वाक : हानिकारक बातें और झूठ न बोलना

सम्यक कर्म : हानिकारक कर्म न करना

सम्यक जीविका : कोई भी स्पष्टतः या अस्पष्टतः हानिकारक व्यापार न करना

सम्यक प्रयास : अपने आप सुधरने की कोशिश करना

सम्यक स्मृति : स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना

सम्यक समाधि : निर्वाण पाना और स्वयं का गायब होना

बुद्ध ने अपने उपदेशों में ‘निर्वाण’ को सबसे ज्यादा महत्व दिया। उन्होंने कहा, ‘निर्वाण’ से बढ़कर सुखद कुछ भी नहीं। भगवान बुद्ध ने निर्वाण का जो अर्थ बताया वह निर्वाण उनके पूर्ववर्ती महापुरुषों से बिल्कुल भिन्न है। उनके पूर्ववर्तियों के अनुसार निर्वाण का मतलब था आत्मा का मोक्ष। बुद्ध के अनुसार निर्वाण का मतलब है राग, द्वेष, और  मोह से मुक्ति। राग-द्वेष की अधीनता ही मनुष्य को दुःखी बनाती है और निर्वाण तक नहीं पहुंचने देती। महात्मा बुद्ध के अनुसार निर्दोष जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है।

बुद्ध ने अपने आप को कभी श्रेष्ठ नहीं बताया। उन्होंने हमेशा यही कहा कि वे भी बहुत से मनुष्यों में से एक हैं और उनका संदेश एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य को दिया गया संदेश हे। बुद्ध ने कहा उनका पथ मुक्ति का सत्य मार्ग है और कोई भी मनुष्य इस विषय में प्रश्न पूछ सकता है, परीक्षण कर सकता है और देख सकता है कि वह सन्मार्ग है।

बुद्ध ने जीवन और धर्म में अनुभव को पहले स्थान पर रखा है, जबकि श्रद्धा को अनुभव के बाद। उनका कहना था कि अनुभव होगा तो श्रद्धा होगी,  और श्रद्धा होगी तो ही आस्था होगी। और इसी को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने कहा कि मुझ पर या जो मैं कहता हूँ उस पर सिर्फ इसलिए भरोसा मत करना कि मैं कहता हूँ बल्कि उसको पहले सोचना, विचारना और जीना और फिर यदि वह तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर खरा उतरे तो ही सही है 

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गौतम बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग