दानवीर कर्ण के कुछ अनसुने दान

कर्ण एक ऐसा योद्धा जिनकी श्रेष्ठता के विषय मे अगर बात की जाए तो शब्द कम पड़ जाते है महाभारत कथा में कर्ण सिर्फ एक महान योद्धा ही नहीं था,  बल्कि वह एक श्रेष्ठ और महान दानवीर भी था। कर्ण को अपनी दानवीरता की कई बार परीक्षा देनी पड़ी जिनमे वो हमेशा सफल रहे, यहां तक कि कौरवों के विरुद्ध होने के बावजूद भी भगवान श्रीकृष्ण कर्ण की इस दानवीरता से बहुत प्रसन्न अतः प्रभावित थे। आज हम बात करेंगे कर्ण के द्वारा दिए गए कुछ ऐसे दान जिनका जिक्र शायद ही आपने पहले काभी सुना हो अतः जिनकी वजह से कर्ण की महानता को परखा जाता है 
यह तो आप जानते ही है की महाभारत का युद्ध अधर्म पर धर्म की विजय को दर्शाता है जिसमे भगवान श्री कृष्ण का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान था। पांडवों और कौरवों के बीच हुए इस युद्ध मे बड़े बड़े महान योद्धाओं ने भाग लिया था जिनमे से एक थे महावीर दानवीर कर्ण।  कर्ण को सूर्यदेव ने कुंती को वरदान स्वरूप उस समय दिया था जब वह अविवाहित थी कुंती ने कर्ण को गंगा मे बहा दिया था परंतु अधिरथ नाम के एक रथ चलाने वाले सूत ने उन्हे बचा लिया और उनका पालन पोषण किया, वे पांडवों के ज्येष्ठ भ्राता थे,  परंतु उनका पालन पोषण एक रथ चलाने वाले ने किया था, इसलिए वो सूत पुत्र कहलाएं और इसी कारण उन्हें समाज में कभी वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो सचमुच हकदार थे। कर्ण मे एक सर्वश्रेष्ठ गुण यह था की वह दान करते वक़्त कभी अपने हित के बारे मे नहीं सोचते थे जिससे भगवान श्री कृष्ण भी अच्छी तरह वाकिफ थे
एक बार अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा की सब कर्ण को ही सबसे बड़ा दानी क्यों मानते है श्री कृष्ण ने अर्जुन को एक उदाहरण देते हुए समझाया उन्होंने एक पर्वत को सोने मे परिवर्तित कर दिया और अर्जुन को कहा की वह इसे नगर वासियों को दान कर दे, तब अर्जुन ने पर्वत को काट-काट कर दान करना शुरू कर दिया किन्तु कुछ समय पश्चात ऐसा करते-करते अर्जुन थक गए और फिर श्री कृष्ण ने वह पर्वत कर्ण को नगर वासियों मे दान करने के लिए कहा तो कर्ण ने सभी नगर वासियों को कहा की यह सारा सोना नगरवासियों का है अतः वे इसे आपस मे बाँट ले। तब श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया की कर्ण ने एक  बार भी अपने हित के विषय मे नहीं सोचा और बिना सोचे समझे ही बस दान कर दिया अतः यही कारण है जिससे की कर्ण को सबसे बड़ा एवं एक महान दानवीर माना जाता है।
जिस समय पांडव इंद्रप्रस्थ पर राज्य किया करते थे उस समय अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने श्री कृष्ण के सामने महाराज युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए कहा की वे एक बहुत बड़े दानी है श्री कृष्ण ने उन्हे कहा की मैं कर्ण को ही सबसे बड़ा दानी मानता हूँ किन्तु पांडव यह सुनकर थोड़ा रुष्ट हो गए तब श्री कृष्ण ने कहा की समय आने पर मै आप सबको इसका प्रमाण अवश्य दूंगा। कुछ समय पश्चात महाराज युधिष्ठिर के पास एक ब्राह्मण आते है जो अपनी याचिका युधिष्ठिर के समक्ष रखते हुए कहते है की मेरा व्रत है और बिना हवन  किए मै अन्न ग्रहण नहीं कर सकता अतः कई दिनों से मुझे हवन के लिए सुखी चंदन की लकड़ी नहीं मिल रही है महाराज युधिष्ठिर ने अपने कोषाध्यक्ष को लकड़ियों का प्रबंध करने के लिए कहा परंतु कोषाध्यक्ष ने कहा की महाराज महल मे अभी सुखी चंदन की लकड़ियाँ उपलब्ध नहीं है तब युधिष्ठिर ने अर्जुन और भीम को लकड़ियों का प्रबंध करने का आदेश दिया परंतु उनके भी सभी प्रयत्न विफल रहे और चंदन की सुखी लकड़ियों का प्रबंध नहीं हो पाया जिससे ब्राह्मण बहुत हताश हो गए तभी श्री कृष्ण उन्हे कहते है की लकड़ियों का प्रबंध हो सकता है आप मेरे साथ चलिए और वे सभी पांडवों को भी वेश बदलकर अपने साथ कर्ण के महल मे ले जाते है ब्राह्मण ने अपनी वही याचिकाs कर्ण के समक्ष भी रखी अतः कर्ण ने भी अपने कोषाध्यक्ष को लकड़ियों का प्रबंध करने का आदेश दिया किन्तु वहां भी सूखी लकड़ी नहीं थी जिससे निराश होकर ब्राह्मण वहाँ से जाने लगे सभी पांडव श्री कृष्ण की तरफ देखकर मुस्कुराने लगे तभी कर्ण ने ब्राह्मण को रोका और कहा कि हे ब्राह्मण आपके लिए चंदन की सूखी लकड़ियों का प्रबंध हो जाएगा आप जरा तनिक ठहरिए अतः दानवीर कर्ण ने अपने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दिया और फिर ब्राह्मण से कहा की आपको जितनी लकड़ियां चाहिए आप ले जाइए। मै लकड़ियाँ आपके घर पहुंचाने का प्रबंध भी कर देता हूँ। ब्राह्मण कर्ण को आशीर्वाद देते है अतः पांडव, श्रीकृष्ण और वह ब्राह्मण वापिस लौट जाते है। तब भगवान श्री कृष्ण कहते है की साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में भी किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का नाम ही दान है। अन्यथा हे युधिष्ठिर! चंदन की लकड़ी के खिड़की व दरवाजे तो आपके महल में भी थे।
इसी तरह एक बार दुर्योधन के महल मे स्वयं भगवान नारायण एक पुरोहित के वेश में पधारे और दुर्योधन से भिक्षा मांगने लगे। दुर्योधन ने पूछा की हे महाराज आपको क्या चाहिए?' संत ने कहा, 'मैं अपनी वृद्धावस्था से बहुत दुखी हूं और मैं चारों धाम की यात्रा करना चाहता हूं, जो की युवावस्था के स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं है इसलिए यदि आप मुझे दान देना चाहते हैं तो यौवन दान दीजिए। दुर्योधन कहते है, हे महात्मा! मेरे यौवन पर मेरी पत्नी का अधिकार है। अगर आपकी आज्ञा हो तो उनसे एक बार पूछ लेता हूँ अतः उनकी सहमति हुई तो मै अपना यौवन अवश्य आपको दे दूँगा? महात्मा सहमत हो गए अतः दुर्योधन अंदर गए और मुंह लटका कर वापिस लौट आये। महात्मा ने दुर्योधन के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वह स्वत: ही समझ गए और वहां से चले जाते है। उसके बाद वे महा दानी कर्ण के पास जाते है कर्ण तुरंत अपने राज द्वार पर उपस्थित होते है और कहते है की हे महात्मा मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? संत ने दुर्योधन से जो निवेदन किया था, वही कर्ण से भी कर दिया। कर्ण ने संत को सिर्फ कुछ देर प्रतीक्षा करने की विनती की और पत्नी से परामर्श करने अंदर चले गये लेकिन उनकी पत्नी ने कहा हे महाराज! दानवीर कर्ण को दान देने के लिए किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है? आप नि:संकोच अपना यौवन उन महात्मा को दान कर दीजिए। कर्ण ने कोई विलंब न करते हुए यौवन दान की घोषणा कर दी। तब संत के शरीर से स्वयं भगवान विष्णु प्रकट हो गए और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वापिस लौट गए जो उन दोनों की परीक्षा लेने गए थे।
और अंतिम क्षणों मे जब कर्ण मृत्यु-शैया पर थे तब श्री कृष्ण एक ब्राह्मण के वेश मे उनके पास उनके दानवीर होने की परीक्षा लेने के लिए पहुँच गए। कर्ण ने ब्राह्मण रूप मे श्री कृष्ण को कहा कि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। ऐसे में कृष्ण ने उनसे उनका सोने का दांत मांग लिया। कर्ण ने अपने समीप पड़े पत्थर को उठाया और उससे अपना दांत तोड़कर श्री कृष्ण को दे दिया। कर्ण ने एक बार फिर अपने दानवीर होने का प्रमाण दिया जिससे भगवान श्री कृष्ण बहुत प्रभावित हुए। कृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी तीन वरदान मांग सकते हैं। कर्ण ने कृष्ण से कहा कि एक निर्धन सूत पुत्र होने की वजह से उनके साथ बहुत छल हुए हैं और उन्हे बड़ी हीन भावना से देखा गया है अतः हे कृष्ण अगली बार जब भी आप धरती पर आएं तो पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन को सुधारने के लिए प्रयत्न करें। इसके साथ कर्ण ने दो और वरदान मांगे। दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने यह मांगा कि अगले जन्म में कृष्ण उन्हीं के राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में उन्होंने कृष्ण से कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहां कोई पाप ना हो। उनकी इस इच्छा को सुनकर कृष्ण दुविधा में पड़ गए क्योंकि पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं था, जहां एक भी पाप नहीं हुआ हो। ऐसी कोई जगह न होने के कारण भगवान श्री कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर किया। अतः इस तरह दानवीर कर्ण मृत्यु के पश्चात साक्षात वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए।

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