सरदार हरिसिंह नलवा एक महान सेनानायक
भारत हमेशा से शेरों की तपोभूमि रहा है यहाँ एक से बढ़कर एक वीरों ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपनी वीरता के अदम्य साहस के ऐसे-ऐसे उदाहरण दिए जिन्हे देखकर दुश्मनों के दाँत खट्टे हो जाते थे। हम आपको रूबरू करवा रहे है ऐसे ही एक महान योद्धा से जिनकी तलवार की धार की चमक आज भी अफगानिस्तान मे चमकती है भारतीय इतिहास के महान वीर योद्धा सेनापति “सरदार हरि सिंह नलवा”।
सरदार हरि सिंह नलवा, महाराजा रणजीत सिंह के सेनाध्यक्ष थे जिन्होंने उनके साथ कई युद्धों का नेतृत्व किया। हरि सिंह नलवा को भारत के श्रेष्ठ सेना नायकों में गिना जाता है। उन्होंने कश्मीर पर जीत हासिल कर अपनी विजय का झंडा लहराया। यही नहीं, उन्होंने काबुल को भी जीत लिया और खैबर दर्रे से होने वाले अफगान आक्रमणों से देश को मुक्त किया। इतिहास में पहली बार हुआ था कि पेशावरी पश्तून, पंजाबियों द्वारा शासित थे।
कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा हरि सिंह नलवा की वीरता और उनके अदम्य साहस को पुरस्कृत करते हुए भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की तीसरी पट्टी को हरा रंग दिया गया है।
महाराजा रणजीत सिंह के सेनाध्यक्ष के रूप में हरि सिंह नलवा ने सिख साम्राज्य की भौगोलिक सीमाओं को पंजाब से लेकर काबुल तक विस्तृत किया था। महाराजा रणजीत सिंह के सिख शासन के दौरान 1807 ई. से लेकर 1837 ई. तक हरि सिंह नलवा लगातार अफ़गानों के खिलाफ लड़े। अफ़गानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर नलवा ने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन का झंडा लहराया था।
ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन से भी की है और सर हेनरी ग्रिफिन ने हरि सिंह को "खालसाजी का चैंपियन" कहा है
वीर हरि सिंह का एक किस्सा बहुत मशहूर है। कहते है कि महाराजा रणजीत सिंह एक बार जंगल में शिकार खेलने गये थे। उनके साथ कुछ सैनिक और हरी सिंह भी थे. उसी समय एक विशाल आकार के बाघ ने उन पर हमला कर दिया। जिस समय डर के मारे सभी दहशत में थे, हरी सिंह बाघ से दो-दो हाथ करने के लिए मैदान मे कूद पड़े। इस खतरनाक मुठभेड़ में वीर हरी सिंह ने बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसका मुंह बीचों बीच चीर डाला। उनकी इस बहादुरी को देख कर महाराजा रणजीत सिंह ने कहा ‘तुम तो राजा नल जैसे वीर हो’ और तभी से वो ‘नलवा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। वे बाघ-मार के नाम से भी जाने जाते है।
हरि सिंह नलवा का जन्म 1791 में 28 अप्रैल को एक जट सिक्ख परिवार में गुजरांवाला पंजाब में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह उप्प्पल और माँ का नाम धर्मा कौर था।[2] बचपन में उन्हें घर के लोग प्यार से "हरिया" कहते थे। सात वर्ष की आयु में इनके पिता का देहांत हो गया था। बचपन से ही हरी सिंह को अस्त्र-शस्त्र विद्या सीखने मे बड़ी रुचि थी। 10 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते पंजाब का यह शेर घुड़सवारी, मार्शल आर्ट, तलवार और भाला चलाना सीखने लगा था। 1805 में वसंत उत्सव के मौके पर महाराजा रणजीत सिंह ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमे जीतने वाले प्रतियोगियों को प्रतिभा के बल पर सेना मे नियुक्त किया जाना था हरी सिंह ने भी इसमें हिस्सा लिया और भाला चलाने, तीर चलाने से लेकर अनेक प्रतियोगिताओं में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। इन सब से प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हे अपनी सेना में भर्ती कर लिया। अपनी बहादुरी की वजह से जल्द ही हरी सिंह को सेना की एक टुकड़ी की कमान सौंप दी गई और फिर शीघ्र ही वे महाराजा रणजीत सिंह के विश्वासपात्र सेना नायकों में से एक बन गये।
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में 1807 ई. से लेकर 1837 ई. तक हरि सिंह नलवा लगातार अफ़गानों से लोहा लेते रहे। अफ़गानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर उन्होने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की स्थापना की थी। काबुल बादशाहत के तीन पश्तून उत्तराधिकारी सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे। पहला था अहमद शाह अब्दाली का पोता, शाह शूजा ; दूसरा फ़तह खान, उसका दोस्त मोहम्मद खान और उसके बेटे, तीसरा, सुल्तान मोहम्मद खान, जो अफगानिस्तान के राजा जहीर शाह का पूर्वज था।
अहमदशाह अब्दाली के पश्चात् तैमूर लंग के काल में अफ़ग़ानिस्तान विस्तृत तो था लेकिन अखंडित था। इसमें कश्मीर, लाहौर, पेशावर, कंधार तथा मुल्तान भी थे। हेरात, कलात, बलूचिस्तान, फारस आदि पर उसका प्रभुत्व था। हरि सिंह नलवा ने इनमें से अनेक प्रदेशों को जीतकर महाराजा रणजीत सिंह के अधीन ला दिया। हरी सिंह ने 20 से ज्यादा लडाइयों में सेना का नेतृत्व किया। उन्होंने 1813 में अटक, 1818 में मुल्तान, 1819 में कश्मीर और 1823 में पेशावर को भी अपने कब्जे में कर लिया था. सारे अफगान शासकों में हरी सिंह का खौफ़ फ़ैल गया था. जब वह जंग के मैदान में अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर दुश्मन सैनिकों के सिर कलम कर रहे होते थे, तो बाकी सैनिक डर के मारे ही भाग जाते थे. उनकी बहादुरी की वजह से ही उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी गई।
खैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। खैबर दर्रे से होकर ही 500 ईसा पूर्व में यूनानियों ने भारत पर आक्रमण कर बहुत सी संपत्ति को लूटा था। इसी दर्रे से होकर हूण, शक, अरब, तुर्क, पठान और मुगल लगभग एक हजार वर्ष तक भारत पर आक्रमण करते रहे। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत को बेहद दर्द और संपत्ति का नुकसान झेलना पड़ा था। हरि सिंह नलवा ने खैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानजनक लूटपाट की प्रक्रिया को पूरी तरह से समाप्त कर दिया था।
हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में उन्होने एक नया सिक्का बनवाया था जो ‘हरि सिन्गी’ के नाम से जाना जाता था। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शित है।
पेशावर के प्रशासक यार मोहम्मद ने महाराजा रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली थी लेकिन दूसरी तरफ वहीं काबुल के शासक मोहम्मद अजीम ने महाराजा रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार नहीं की और जेहाद का नारा लगा दिया जिससे खैबर के लगभग 45000 खट्टक और यूसुफजाही कबीले के लोग एकत्र हो गए जिनके नेत्रतव की कमान सैय्यद अकबर शाह को दी गई। यार मोहम्मद को कहा गया कि काफिर के सामने झुक गया। जिससे यार मोहम्मद पेशावर छोड़कर भाग गया। फिर क्या था युद्ध की तैयारिया शुरू हो गई और महाराजा रणजीत सिंह ने सेना को उत्तर की ओर पेशावर कूच करने का आदेश दिया। राजकुमार शेर सिंह, दीवान चन्द और जनरल वेन्चूरा अपनी-अपनी टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे। हरि सिंह नलवा , अकाली बाबा फूला सिंह, फतेह सिंह आहलुवालिया, देसा सिंह मजीठिया और अत्तर सिंह सन्धावालिये ने सशस्त्र दलों और घुड़सवारों का नेतृत्व किया। तोपखाने की कमान मियां गोस खान और जनरल एलार्ड के पास थी।
इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनायी गयी गोरखा सैन्य टुकड़ी एक ऐतिहासिक सेना साबित हुई। गोरखा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले थे और पेशावर और खैबर दर्रे के इलाकों में प्रभावशाली आक्रमण करते थे। सरदार हरि सिंह नलवा की सेना शेर-ए-दिल रजामान सबसे आगे थी। सेना ने पोनटून पुल तो पार कर लिया। लेकिन बर्फबारी के कारण कुछ दिन रूकना पड़ा। सरदार हरि सिंह नलवा और राजकुमार शेर सिंह ने पुल पार करके किले पर कब्जा कर लिया। उन्होने जेहादियों पर कई आक्रमण किये। लेकिन अन्त में घिर जाने के कारण बलभद्र शहीद हो गये। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली फूला सिंह और निहंगों की सशक्त जमात जमकर लड़ी। जनरल वेन्चूरा घायल हो गये। अकाली फूला सिंह के घोड़े को गोली लग गई थी और वह एक हाथी पर चढने की रणनीतिक भूल कर बैठे। वे ओट से बाहर तो आ गये थे लेकिन जेहादियों ने उन्हें गोलियों से छननी कर दिया था जिस वजह से वे वहीं शहीद हो गये।
अप्रैल 1836 में, जब पूरी अफगान सेना ने जमरौद पर हमला किया था, अचानक प्राणघातक घायल होने पर नलवा ने अपने नुमाइंदे महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिये नयी सेना का आगमन ना हो जाये उनकी मृत्यु की घोषणा ना की जाये जिससे कि सैनिक हतोत्साहित ना हो और वीरता से डटे रहे। हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफगान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही।
हरी सिंह ने खैबर दर्रे की सीमा की हमेशा बहादुरी से रक्षा की, उनके जीते जी अफगान कभी भी आगे नहीं बढ़ पाए. हरी सिंह ने अफगानों से रक्षा के लिए जमरॉद में एक मजबूत किले का निर्माण करवाया था. अफगान आक्रमणकारी अक्सर इस क्षेत्र में हमले करते रहते थे. 30 अप्रैल 1837 को जमरूद पर एक भयंकर आक्रमण हुआ। उस समय राजा रणजीत सिंह अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे और हरी सिंह बीमार चल रहे थे, फिर भी उन्होंने युद्ध में भाग लिया. उन्होंने अफगानों से उनका असला-बारुद छीन लिया। परंतु अफगानी संख्या मे अधिक थे इसलिए हरिसिंह ने राजा रणजीत सिंह से अतिरिक्त सेना भेजने की मांग की थी किसी वजह से समय पर सेना नहीं पहुँच सकी और लड़ते-लड़ते हरी सिंह बुरी तरह से घायल हो गये और उनके साथ उनका पूरा सैनिक दस्ता वीरगति को प्राप्त हो गए। हरी सिंह की मृत्यु के बावजूद अफगान पेशावर पर कब्जा नहीं कर पाए थे।
1892 में पेशावर के एक हिन्दू बाबू गज्जू मल्ल कपूर के द्वारा उनकी स्मृति में किले के अन्दर एक स्मारक बनवाया गया है। आज भी भारतीय इतिहास मे उनका नाम सिख योद्धाओं मे बड़े ही सम्मान से लिया जाता है।
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सरदार हरिसिंह नलवा एक महान सेनानायक