कॉमरम भीम The Tiger of तेलंगाना


कॉमरम भीम 

जल जमीन जंगल
यह नारा बना था गोंड जाती के लोगों को उनका हक दिलाने के लिए
औरंगजेब की मृत्यु के बाद, मुगल साम्राज्य का पतन हो गया। तो, निज़ामों ने हैदराबाद को एक स्वतन्त्र राज्य बना लिया। जब भारत पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया, तब अंग्रेजों के साथ मिलकर निज़ामों ने हैदराबाद पर अपना शासन जारी रखा। निज़ामों ने 1720 से 17 सितंबर 1948 तक हैदराबाद पर शासन किया उनके प्रथम राजा कमरुद्दीन खान और अंतिमं उस्मान अली खान थे



बात उस समय की है जब निजाम सरकार के जगीरदार सिद्दिकी के आदिवासियों या गौड़ समूह पर अत्याचार बढ़ते जा रहे थे निज़ामों ने अधिक कर लगाकर आदिवासियों की जमीनें छीन ली थी उस समय एक युवक ने अत्याचारों को न सहते हुए निज़ामों के खिलाफ विद्रोह कर दिया और निजाम सरकार के जागीरदार सिद्दकी की हत्या कर दी| उस युवक का नाम था कॉमरम भीम| कोमरम भीम का जन्म 22 अक्टूबर 1901 में आसिफाबाद जिसको बाद मे अदिलाबाद नाम दिया गया जिले के संकेपल्ली गांव में हुआ। उस समय यह क्षेत्र असफजाही के नियंत्रण मे था। कॉमरम भीम  ने सिद्दकी की हत्या इसलिए की थी क्योंकि जब वह 19 वर्ष के थे तब निज़ामों ने उसके पिता की बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी थी जो की आदिवासियों के हक़ के लिए लड़ रहे थे| पिता की मुत्यु के बाद कोमरम भीम का परिवार केरिमेल्ला गांव मे जाकर रहने लगा|  
जहाँ पर सिद्दकी की हत्या के बाद अब निज़ामों ने कॉमरम भीम को मारने की साजिस रची और उसकी खोज शुरू कर दी जिसकी वजह से कॉमरम भीम को अपना गाँव छोड़ना पड़ा और वे अपने दोस्त कोंडल के साथ चंद्रपुर तक पैदल ही भाग गए। विटोबा नाम के एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक ने उनकी मदद की और उन्हें रेलवे स्टेशन से अपने साथ ले गए। विटोबा उस समय अंग्रेजों और निजाम के खिलाफ एक पत्रिका चला रहे थे।
भीम ने विटोबा के साथ रहने के दौरान अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू सीख ली थी थोड़े दिनों बाद, विटोबा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और प्रेस को बंद कर दिया गया। वहां से जाने के बाद वह मनचिर्याल रेलवे स्टेशन पर एक व्यक्ति से मिले जो उन्हे चाय और कॉफी के बागानों मे काम करने के लिए असम ले गए। उन्होंने चाय बागान में श्रमिकों के अधिकारों के लिए प्लैनेटेशन मालिकों के खिलाफ भी विरोध किया और इस संघर्ष के दौरान उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। चार दिनों के बाद, भीम जेल से भाग गए। असम रेलवे स्टेशन से वह एक मालगाड़ी में सवार होकर बल्लारशाह पहुंचे जब वह असम में थे, तो उन्होंने अल्लूरी सीतारामजू के बारे में सुना था, जो जंगल में आदिवासी संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने रामजू गोंड के संघर्षों को याद किया और निर्णय लिया की वह आदिवासियों को उनका हक अवश्य दिलाएंगे कोमरम भीम हमेशा आदिवासियों के बारे में ही सोचते रहते थे।
पांच साल बाद वह वापिस लौटे और सरदापुर गाँव मे रहने लगे जहाँ उन्होंने आदिवासियों को एकजुट किया और जोदेघाट के क्षेत्रो में गेरिल्ला आर्मी को तैयार किया। इस तरह कोमरम भीम 12 गांवों में शासन करने लगे थे। गोंड के विद्रोह की शुरुआत बेबेझारी और जोदेघाट जमींदारों पर हमला करने से हुई। इस विद्रोह के बारे में पता चलने के बाद निज़ाम सरकार घबरा गई और उसने कोमरम भीम के साथ बातचीत करने के लिए आसिफ़ाबाद के कलेक्टर को भेजा और आश्वासन दिया कि उन्हें ज़मीन का पट्टा दिया जाएगा और अतिरिक्त जमीन कोमरम भीम को शासन करने के लिए दी जाएगी। लेकिन भीम ने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और तर्क दिया कि उनका संघर्ष न्याय के लिए है और निज़ाम को उन लोगों को रिहा करना है, जिन्हें झूठे आरोपों में गिरफ्तार किया गया है एवं उसी समय उनकी जगह छोड़ दें और उन्होंने स्व-शासन की अपनी मांग पर जोर दिया।

गोंड आदिवासियों ने अत्यंत लगन और नैतिकता के साथ अपनी भूमि की रक्षा की। कॉमरम भीम के भाषण ने उन्हें भूमि, भोजन और स्वतंत्रता के संघर्ष में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। लोगों ने अपने भविष्य की रक्षा के लिए अपनी आखिरी सांस तक लड़ने का फैसला किया।


इस दौरान, भीम ने नारा दिया - "जल जंगल ज़मीन"। निज़ाम सरकार ने भीम की मांगों को नहीं सुना और आदिवासियों का उत्पीड़न जारी रहा,  जब निज़ाम सरकार ने भीम को मारने का निर्णय ले लिया तो ब्रिटिस सरकार की सहायता लेकर तहसीलदार अब्दुल सत्तार को इस क्रूर साजिश का नेतृत्व करने को कहा  और कैप्टन अलीराज ब्रांड्स को 300 सेना के जवानों के साथ बाबेजहेड़ी और जोदेघाट पहाड़ियों पर भेजा। निज़ाम सरकार उसे और उसकी सेना को पकड़ने में विफल रही। इसलिए उन्होंने कुर्द पटेल जो की आदिवासी समुदाय से ही थे को रिश्वत दी, और सरकार का मुखबिर बना लिया, कहा जाता है कि उसी ने भीम की सेना के बारे में निज़ामों को जानकारी दी थी|
इस जानकारी के आधार पर, 1 सितंबर, 1940 को सुबह-सुबह, “जोदेघाट में महिलाओं ने कोमरम भीम की तलाश में आते हुए अपने गांव के आसपास सशस्त्र पुलिसकर्मियों को देखा तो उन्होंने कॉमरम भीम को इसके बारे मे अवगत किया|  जब भीम ने यह देखा कि अंग्रेजों और निज़ाम सेना ने उनको चारों और से घेर लिया है और वहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं है तो उन्होंने डट कर मुकाबला करने की ठान ली|  अब्दुल सत्तार ने उन्हे आत्म समर्पण के लिए भी उकसाया परंतु उन्होंने उनकी एक न सुनी और मुकाबले के लिए तैयार हो गए|  निज़ाम अच्छे से जानते थे कि कॉमरम भीम आसानी से हार नहीं मानेंगे तो उन्होंने पूरे जोदेघाट मे आग लगवा दी| 3 दिन तक चली इस लड़ाई मे कॉमरम भीम और उनके 15 साथियों ने बड़ी ही बहादुरी से दुश्मनों का सामना किया और वीरगति को प्राप्त हो गए|  तब से लेकर अब तक गोंड जाति आदिवासियों के समूह कोमरम भीम को आरध्य मानते हैं। कोमरम भीम गोंड आदिवासी समुदाय के बीच अत्यंत सम्मानजनक स्थान रखते हैं और उन्हें एक देवता के रूप में माना जाता है। गोंड्स हर साल आसेवुजा पोवर्नी पर भीम की पुण्यतिथि मनाते है और इस दिन,  उनके जीवन और संघर्ष को याद करने के लिए जोदेघाट में एक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। लंबे संघर्ष के बाद, उनकी मृत्यु के 72 साल बाद, 2012 में कोमरम भीम की प्रतिमा हैदराबाद के टैंक बंड में स्थापित की गई थी।
भीम के बारे मे कई इतिहासकारों ने अपने अपने तर्क दिए है कोई कहता है की भीम एक राष्ट्रवादी वनवासी हिन्दू नेता थे जिन्होंने निजाम सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। तो कोई कहता है की भीम हिंदू ’धर्म का समर्थन करता था और हिन्दुओ के अधिकारों के लिए लड़ता था परंतु  आदिवासियों का इतिहास हमें एक पूरी तरह से अलग कहानी बताता है। और दर्शाता है की निज़ाम के खिलाफ भीम का आंदोलन पूरी तरह से 'आदिवासियों के अधिकारों,  भूमि की पुनर्खरीद और स्वायत्तता की माँग' से इनकार करने के कारण पैदा हुआ था।  वह केवल अपने लोगों को बाहरी लोगों से मुक्त कराना चाहता था और न्याय और आत्म-शासन के लिए लड़ रहा था।  
तेलंगाना सरकार ने उनके सम्मान में आसिफाबाद जिले का नाम "कोमरम भीम आसिफाबाद" किया है। तेलंगाना सरकार ने जोदेघाट को पर्यटन स्थान बनाने का फैसला किया है और ट्रैवल संग्रहालय बनाने की घोषणा की है।

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