महाराणा प्रताप और चेतक एक अनूठा रिस्ता


रणबीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था
जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं, तब तक चेतक मुड़ जाता था
गिरता न कभी चेतक तन पर, राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, वह आसमान का घोड़ा था
श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा लिखी गई ‘चेतक की वीरता’ नाम की यह कविता बहुत प्रसिद्ध है। महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध नीलवर्ण अरबी मूल के घोड़े का नाम चेतक था।
1576 मे हुए हल्दी घाटी के प्रसिद्ध युद्ध में चेतक ने अपनी  बुद्धिमत्ता, वीरता एवं स्वामीभक्ति का ऐसा परिचय दिया जो इतिहास में अमर हो गया।
16 वीं शताब्दी मे महाराणा प्रताप एक अकेले ऐसे राजपूत शासक थे जिन्हे घाँस की रोटी खाना और ज़मीन पर सोना मंजूर था परंतु अकबर की अधीनता कतई स्वीकार नहीं थी। महाराणा प्रताप जीतने वीर थे उतना ही वीर था उनका घोडा चेतक। महाराणा प्रताप और चेतक का एक अनूठा संबंध था चेतक का रंग नीला था वह वफादार और संवेदनशील होने के साथ साथ बहुत बहादुर भी था
गुजरात के भीमोरा गाँव का एक व्यापारी काठीयावाडी नस्ल के तीन घोडे चेतक,त्राटक और अटक लेकर मारवाड आया जिसने तीनों घोड़े महाराणा उदय सिंह को दिखाए जिनमे से अटक को परीक्षण के लिए रख लिया गया अतः त्राटक और चेतक को  शाही घोड़ों मे शामिल कर लिया गया।
महाराणा उदय सिंह ने अपने दोनों पुत्रों महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह के सामने दोनों घोड़े पेश करवाए जिनमे चेतक नीले रंग का था और त्राटक सफेद रंग का, उन्होंने महाराणा प्रताप को उनमे से एक घोड़े का चयन करने के लिए कहा, प्रताप अच्छी तरह जानते थे कि वह जिस भी घोड़े को पसंद करेंगे छोटा भाई शक्ति सिंह भी उसी को लेने के लिए हठ करेगा  इसीलिए उन्होंने दूर से ही सफेद घोड़े की तारीफ़ों के पुल बांधने शुरू कर दिए, जबकि महाराणा प्रताप को नीला घोडा देखते ही पसंद या गया था आखिर हुआ भी वही प्रताप घोड़े की तरफ बढ़ ही रहे थे की तभी शक्ति सिंह अचानक तेज गति से दौड़कर सफेद घोड़े पर सवार हो जाते है और महाराणा उदय सिंह के सामने हठ कर ली की उनको सफेद घोडा ही चाहिए। अतः छोटे भाई की हठ को देखते हुए उन्होंने सफेद घोडा शक्ति सिंह को दे दिया और वह स्वयं नीले घोड़े यानी चेतक पर सवार हो गए। 
उसके बाद महाराणा प्रताप की जितनी भी वीर गाथाएं प्रचलित हुई उनमे चेतक का अपना ही एक अलग स्थान है चेतक को महाराणा ने बहुत अच्छा प्रशिक्षण दिया और चेतक ने भी अपनी अद्वितीय स्वामीभक्ति, बुद्धिमता, वीरता तथा गज़ब की फुर्ती का परिचय दिया जिसकी वजह से महाराणा प्रताप ने बहुत से युद्ध बड़ी ही सहजता से जीते थे। युद्ध के दौरान चेतक को हाथी की नकली सूंड लगायी जाती थी ताकि दुश्मन को भ्रम मे रखा जा सके की वह घोड़ा है या हाथी। हल्दी घाटी के युद्ध मे महाराणा प्रताप अकबर की सेना को चीरते हुए सेनापति मानसिंह की और फुर्ती से बढ़ रहे थे की महाराणा जैसे ही चेतक को जरा सा इशारा करते है
चेतक सीधा मानसिंह के हाथी के मस्तक पर चढ़ गया। चेतक के ऐसा करते ही मानसिंह तो छिप गया परंतु राणा के वार से महावत मारा गया। हालांकि हाथी से उतरते समय चेतक का एक पैर हाथी की सूंड में बंधी तलवार से कट गया। बेकाबू हाथी को मानसिंह ने संभाल लिया। सबको भ्रम हुआ कि मानसिंह मर गया। दूसरे ही पल बहलोल खां पर प्रताप ने ऐसा वार किया कि सिर से घोड़े तक के दो टुकड़े कर दिए। अकबर की विशाल सेना बलशाली हाथियों से सुसज्जित थी लेकिन महाराणा प्रताप का वीर घोड़ा चेतक उन सभी हाथियों पर अकेला ही भारी था।
लड़ते लड़ते महाराणा और चेतक दोनों बुरी तरह घायल हो चुके थे की तभी महाराणा के एक वीर सेना नायक बिदा झल्ला ने अपने सेनापति से शाही छत्र जब्त कर लिया और खुद को राणा होने का दावा करते हुए मैदान मे टिके रहे। उनके बलिदान के कारण घायल महाराणा प्रताप और करीब 1,800 राजपूत युद्ध भूमि से निकलने मे सफल रहे। चेतक बिजली की तरह दौड़ते हुए क्षण भर मे हल्दी घाटी से निकल गया परंतु मुगल सेना भी उनके पिछे थी घायल होने के बावजूद चेतक की रफ्तार इतनी तेज थी की वह 26 फीट के नाले को पलक झपकते ही लांघ गया
जबकि मुगल सेना के घुड़सवार नाले को पार नहीं कर सके परंतु नाले को पार करते ही कुछ दूरी पर चेतक के कदम डगमगा गए और वह वीरगति को प्राप्त हो गया वीरगति के बाद स्वयं महाराणा प्रताप और उनके भाई शक्ति सिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था। आज भी हल्दी घाटी गांव में चेतक की समाधि बनी हुई है




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