पुराणों में महाभारत काल
में बहुत से वीर योद्धाओं का वर्णन किया गया है जिनके पराक्रम का जिक्र करते ही
मानो रोंगटे से खड़े हो जाते है ऐसे योद्धाओं में एक योद्धा ऐसा भी था जिसने स्वयं भगवान श्री
कृष्ण को भी मथुरा छोड़कर भाग जाने पर मजबूर कर दिया था। वह योद्धा था जरासंध! श्री
कृष्ण जो स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे उन्होंने जरासंध का वध इसलिए नहीं किया
था क्योंकि जरासंध को भगवान शिव का वरदान था और वह भगवान शिव के परम भक्त थे भगवान
विष्णु ने श्री कृष्ण के अवतार मे कंश के साथ साथ बहुत से दैत्यों का वध किया था
परंतु उन्होंने जरासंध का वध नहीं किया।
श्री कृष्ण को यह ज्ञात था कि जरासंध की मृत्यु निश्चित है अपितु उनके हाथों नहीं बल्कि होनी तो कुछ और ही होनी थी जिसके कर्ता धर्ता स्वयं तारणहार ही थे जब श्री कृष्ण ने कंश का वध किया तो मगध नरेश जरासंध ने उन्हे अपना परम शत्रु मान लिया क्योंकि जरासंध कंश के ससुर तथा परम मित्र भी थे उन्होंने कंश के साथ अपनी दो पुत्रियों आसित और प्रापित का विवाह किया था कंश वध के उपरांत जरासंध ने मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया परंतु हर बार श्री कृष्ण उनकी सेना को समाप्त कर जरासंध को जीवित छोड़ देते थे चुकि जरासंध का अंत उनके हाथों नहीं होना था अतः श्री कृष्ण मथुरा को छोड़कर द्वारका महल चले गए वहीं से उनका नाम रणछोड़ पड़ गया था जरासंध ने बहुत से शक्तिशाली राजाओं को अपने कारागार में बंदी बनाकर रखा हुआ था। किन्तु उन्होंने किसी को भी मारा नहीं था, जरासंध महादेव के भक्त होने के साथ-साथ ब्राह्मणों का भी बहुत आदर किया करते थे अतः काफी दान-पुन भी किया करते थे, वे वचन के भी बहुत पक्के थे उनमे एक क्षत्रिय योद्धा के सभी गुण थे संभवत: श्री कृष्ण ने इसलिए भी उनका वध नहीं किया होगा क्योंकि वो एक क्रूर राजा नहीं थे अपितु वे ब्राह्मणों का बड़ा आदर-सत्कार किया करते थे। तत्कालीन भारतवर्ष के चन्द्रवँशी क्षत्रिय वँश के मगध सम्राट जरासन्ध इकलौते ऐसे सम्राट थे जिन्होंने पूरे विश्व पर मगध का शासन स्थापित किया था, उनके वंशजों ने उनकी मृत्यु के बाद भी लगभग 1000 वर्षों तक कुशलतापूर्वक शासन किया था। जरासंध महाराजा भरत के वंशज राजा बृहदृथ के पुत्र थे बृहदर्थ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। मगध के सम्राट बृहद्रथ की दो पत्नियां थीं। जब दोनों से कोई संतान नहीं हुई तो एक दिन वे ऋषि चण्डकौशिक के पास गए और उनको उन्होंने अपने दुख की व्यथा सुनायी ऋषि चण्डकौशिक ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि ये फल वे अपनी पत्नी को खिला दे, जिससे उन्हे एक संतान की प्राप्ति होगी। राजा बृहद्रथ ने वह फल काटकर अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। फल लेते वक्त राजा ने यह नहीं पूछा था कि इसे क्या मैं अपनी दोनों पत्नियों को खिला सकता हूं? फल को खाने से दोनों पत्नियां गर्भवती हो गईं। किन्तु जब गर्भ से शिशु का जन्म हुआ तो वह आधा-आधा था अर्थात आधा पहली रानी के गर्भ से और आधा दूसरी रानी के गर्भ से। दोनों रानियों ने घबराकर उस शिशु के दोनों जीवित टुकड़ों को बाहर फिंकवा दिया। उसी दौरान वहां से एक राक्षसी का गुजरना हुआ। जब उसने जीवित शिशु के दो टुकड़ों को देखा तो उसने अपनी माया से उन दोनों टुकड़ों को आपस में जोड़ दिया और वह शिशु एक हो गया। एक होते ही वह शिशु जोर-जोर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर दोनों रानियां बाहर निकलीं और उस बालक और राक्षसी को देखकर आश्चर्य में पड़ गईं। एक ने उसे गोद में ले लिया। तभी राजा बृहद्रथ भी वहां आ गए और उन्होंने वहां खड़ी उस राक्षसी से उसका परिचय पूछा। राक्षसी ने राजा को सारा किस्सा बता दिया। उस राक्षसी का नाम जरा था। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया, क्योंकि उसे जरा नाम की राक्षसी ने संधित किया था अर्थात् जोड़ा था। बृहद्रथ के द्वारा स्थापित राजवंश को बृहद्रथ-वंश कहा गया अतः जरासंध इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था. जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। जिस समय दुर्योधन ने कर्ण को अंग प्रदेश का राजा बनाया, जरासंध ने अंग प्रदेश पर आक्रमण कर दिया चुकि वह 100 राजाओं को बंदी बनाकर एक साथ उनकी बलि देकर चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहता था जिसमे से 86 राजाओं को वह पहले ही बंदी बना चुका था अतः वह कर्ण को भी बंदी बनाना चाहता था जरासंध और कर्ण के मध्य युद्ध के दौरान कर्ण ने जरासंध को चेतावनी दी कि उसे उसकी मृत्यु क रहस्य ज्ञात हो गया है या तो उसे बीच से खा कर मारा जा सकता है या फिर उसके शरीर के दो टुकड़े करके अलग अलग दिशा मे फेका जाए तो उसकी मृत्यु हो जाएगी तब जरासंध अपनी पराजय स्वीकार कर लेता हैं और कर्ण से मित्रता कर लेता है कुछ दिनों के बाद जब इंद्रप्रस्थ नगरी का निर्माण पूरा होने पर महाराज युधिष्ठिर राजगद्दी पर विराजमान हो जाते है तो भगवान श्री कृष्ण ने अपनी लीला रची और नारद मुनि के जरिए यह संदेश पहुंचाया की अब वे राजसू यज्ञ करें। लेकिन महाराज युधिष्ठिर के चक्रवर्ती सम्राट बनने के मार्ग में केवल एक योद्धाा था, मगध नरेश जरासंध, जिसे परास्त किए बिना वह सम्राट नहीं बन सकते थे और ना ही उसे रणभूमि मे परास्त किया जा सकता था। इस समस्या का समाधान करने के लिए श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन के साथ ब्राह्मणों का भेष बनाकर मगध की ओर चल दिए। वहाँ पहुँच कर जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर कुछ माँग लेने के लिए कहा लकिन उस समय ब्राह्मण भेषधारी श्रीकृष्ण ने कहा की अभी उनके दोनों मित्रों का मौन व्रत है जो अर्ध रात्रि में समाप्त होगा। तब जरासंध ने उन्हे वचन दिया कि वो अर्ध रात्रि को ही आएंगे और उन्हें ब्राह्मण कक्ष मे ठहराया। अर्धरात्रि में वह आय लेकिन उन्हे उन तीनों पर कुछ संदेह हुआ की वे ब्राह्मण नहीं है कयोकि वे शरीर से बिल्कुल क्षत्रिय लग रहे थे उन्होंने अपने संदेह को प्रकट किया और उन्हे उनके वास्तविक रूप में आने को कहा अतः उन्हे पहचान लिया। तब श्रीकृष्ण उन्हे बातों मे फांस लिया और उन्हे धर्म संकट मे डाल दिया। अंत मे जरासंध ने कहा की उन्हें जो भी चाहिए वे माँग ले और यहाँ से चले जाएं। तब उन्होंने ब्राह्मण भेष में ही जरासंध को मल्ल युद्ध करने के लिए आमंत्रित किया और फिर अपना वास्तविक परिचय दिया। जरासंध एक वीर योधा था इसलिए उसने मल्ल युद्ध के लिए भीम को ही चुना। अगले दिन जरासंध और भीम के मध्य मल्ल भूमि में मल्ल युद्ध हुआ। यह युद्ध लगभग 13 दिनो तक चलता रहा लेकिन जितनी बार भीमसेन जरासंध के दो टुकड़े करते वह फिर से जुड़ जाता। श्री कृष्ण की माया को तो आप जानते ही है वे भली भाँति जानते थे की जरासंध क अंत किस प्रकार होना है अतः श्रीकृष्ण ने जमीन पर पड़े घास के एक तिनके को उठाया और उसे बीच से फाड़ते हुए दो टुकड़ों मे विभाजित कर दिया उन्होंने बाएँ टुकड़े को दाईं तरफ फेक दिया और दाएं टुकड़े को बाईं तरफ फेक दिया इस प्रकार तिनके की सहायता से भीम को संकेत दिया की इस बार वह उसके टुकड़े कर के दोनों टुकड़े अलग-अलग दिशा में फेंके। तब भीम ने वैसा ही किया और इस प्रकार जरासंध का वध हुआ। जरासंध का वध करके उन तीनों ने उनके बंदीगृह में बंद सभी 86 राजाओं को मुक्त किया और श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध का राजा बना दिया। सहदेव ने आगे चल के कौरवों के विरुद्ध महाभारत के युध मे पाण्डवों का साथ दिया था।
श्री कृष्ण को यह ज्ञात था कि जरासंध की मृत्यु निश्चित है अपितु उनके हाथों नहीं बल्कि होनी तो कुछ और ही होनी थी जिसके कर्ता धर्ता स्वयं तारणहार ही थे जब श्री कृष्ण ने कंश का वध किया तो मगध नरेश जरासंध ने उन्हे अपना परम शत्रु मान लिया क्योंकि जरासंध कंश के ससुर तथा परम मित्र भी थे उन्होंने कंश के साथ अपनी दो पुत्रियों आसित और प्रापित का विवाह किया था कंश वध के उपरांत जरासंध ने मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया परंतु हर बार श्री कृष्ण उनकी सेना को समाप्त कर जरासंध को जीवित छोड़ देते थे चुकि जरासंध का अंत उनके हाथों नहीं होना था अतः श्री कृष्ण मथुरा को छोड़कर द्वारका महल चले गए वहीं से उनका नाम रणछोड़ पड़ गया था जरासंध ने बहुत से शक्तिशाली राजाओं को अपने कारागार में बंदी बनाकर रखा हुआ था। किन्तु उन्होंने किसी को भी मारा नहीं था, जरासंध महादेव के भक्त होने के साथ-साथ ब्राह्मणों का भी बहुत आदर किया करते थे अतः काफी दान-पुन भी किया करते थे, वे वचन के भी बहुत पक्के थे उनमे एक क्षत्रिय योद्धा के सभी गुण थे संभवत: श्री कृष्ण ने इसलिए भी उनका वध नहीं किया होगा क्योंकि वो एक क्रूर राजा नहीं थे अपितु वे ब्राह्मणों का बड़ा आदर-सत्कार किया करते थे। तत्कालीन भारतवर्ष के चन्द्रवँशी क्षत्रिय वँश के मगध सम्राट जरासन्ध इकलौते ऐसे सम्राट थे जिन्होंने पूरे विश्व पर मगध का शासन स्थापित किया था, उनके वंशजों ने उनकी मृत्यु के बाद भी लगभग 1000 वर्षों तक कुशलतापूर्वक शासन किया था। जरासंध महाराजा भरत के वंशज राजा बृहदृथ के पुत्र थे बृहदर्थ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। मगध के सम्राट बृहद्रथ की दो पत्नियां थीं। जब दोनों से कोई संतान नहीं हुई तो एक दिन वे ऋषि चण्डकौशिक के पास गए और उनको उन्होंने अपने दुख की व्यथा सुनायी ऋषि चण्डकौशिक ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि ये फल वे अपनी पत्नी को खिला दे, जिससे उन्हे एक संतान की प्राप्ति होगी। राजा बृहद्रथ ने वह फल काटकर अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। फल लेते वक्त राजा ने यह नहीं पूछा था कि इसे क्या मैं अपनी दोनों पत्नियों को खिला सकता हूं? फल को खाने से दोनों पत्नियां गर्भवती हो गईं। किन्तु जब गर्भ से शिशु का जन्म हुआ तो वह आधा-आधा था अर्थात आधा पहली रानी के गर्भ से और आधा दूसरी रानी के गर्भ से। दोनों रानियों ने घबराकर उस शिशु के दोनों जीवित टुकड़ों को बाहर फिंकवा दिया। उसी दौरान वहां से एक राक्षसी का गुजरना हुआ। जब उसने जीवित शिशु के दो टुकड़ों को देखा तो उसने अपनी माया से उन दोनों टुकड़ों को आपस में जोड़ दिया और वह शिशु एक हो गया। एक होते ही वह शिशु जोर-जोर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर दोनों रानियां बाहर निकलीं और उस बालक और राक्षसी को देखकर आश्चर्य में पड़ गईं। एक ने उसे गोद में ले लिया। तभी राजा बृहद्रथ भी वहां आ गए और उन्होंने वहां खड़ी उस राक्षसी से उसका परिचय पूछा। राक्षसी ने राजा को सारा किस्सा बता दिया। उस राक्षसी का नाम जरा था। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया, क्योंकि उसे जरा नाम की राक्षसी ने संधित किया था अर्थात् जोड़ा था। बृहद्रथ के द्वारा स्थापित राजवंश को बृहद्रथ-वंश कहा गया अतः जरासंध इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था. जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। जिस समय दुर्योधन ने कर्ण को अंग प्रदेश का राजा बनाया, जरासंध ने अंग प्रदेश पर आक्रमण कर दिया चुकि वह 100 राजाओं को बंदी बनाकर एक साथ उनकी बलि देकर चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहता था जिसमे से 86 राजाओं को वह पहले ही बंदी बना चुका था अतः वह कर्ण को भी बंदी बनाना चाहता था जरासंध और कर्ण के मध्य युद्ध के दौरान कर्ण ने जरासंध को चेतावनी दी कि उसे उसकी मृत्यु क रहस्य ज्ञात हो गया है या तो उसे बीच से खा कर मारा जा सकता है या फिर उसके शरीर के दो टुकड़े करके अलग अलग दिशा मे फेका जाए तो उसकी मृत्यु हो जाएगी तब जरासंध अपनी पराजय स्वीकार कर लेता हैं और कर्ण से मित्रता कर लेता है कुछ दिनों के बाद जब इंद्रप्रस्थ नगरी का निर्माण पूरा होने पर महाराज युधिष्ठिर राजगद्दी पर विराजमान हो जाते है तो भगवान श्री कृष्ण ने अपनी लीला रची और नारद मुनि के जरिए यह संदेश पहुंचाया की अब वे राजसू यज्ञ करें। लेकिन महाराज युधिष्ठिर के चक्रवर्ती सम्राट बनने के मार्ग में केवल एक योद्धाा था, मगध नरेश जरासंध, जिसे परास्त किए बिना वह सम्राट नहीं बन सकते थे और ना ही उसे रणभूमि मे परास्त किया जा सकता था। इस समस्या का समाधान करने के लिए श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन के साथ ब्राह्मणों का भेष बनाकर मगध की ओर चल दिए। वहाँ पहुँच कर जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर कुछ माँग लेने के लिए कहा लकिन उस समय ब्राह्मण भेषधारी श्रीकृष्ण ने कहा की अभी उनके दोनों मित्रों का मौन व्रत है जो अर्ध रात्रि में समाप्त होगा। तब जरासंध ने उन्हे वचन दिया कि वो अर्ध रात्रि को ही आएंगे और उन्हें ब्राह्मण कक्ष मे ठहराया। अर्धरात्रि में वह आय लेकिन उन्हे उन तीनों पर कुछ संदेह हुआ की वे ब्राह्मण नहीं है कयोकि वे शरीर से बिल्कुल क्षत्रिय लग रहे थे उन्होंने अपने संदेह को प्रकट किया और उन्हे उनके वास्तविक रूप में आने को कहा अतः उन्हे पहचान लिया। तब श्रीकृष्ण उन्हे बातों मे फांस लिया और उन्हे धर्म संकट मे डाल दिया। अंत मे जरासंध ने कहा की उन्हें जो भी चाहिए वे माँग ले और यहाँ से चले जाएं। तब उन्होंने ब्राह्मण भेष में ही जरासंध को मल्ल युद्ध करने के लिए आमंत्रित किया और फिर अपना वास्तविक परिचय दिया। जरासंध एक वीर योधा था इसलिए उसने मल्ल युद्ध के लिए भीम को ही चुना। अगले दिन जरासंध और भीम के मध्य मल्ल भूमि में मल्ल युद्ध हुआ। यह युद्ध लगभग 13 दिनो तक चलता रहा लेकिन जितनी बार भीमसेन जरासंध के दो टुकड़े करते वह फिर से जुड़ जाता। श्री कृष्ण की माया को तो आप जानते ही है वे भली भाँति जानते थे की जरासंध क अंत किस प्रकार होना है अतः श्रीकृष्ण ने जमीन पर पड़े घास के एक तिनके को उठाया और उसे बीच से फाड़ते हुए दो टुकड़ों मे विभाजित कर दिया उन्होंने बाएँ टुकड़े को दाईं तरफ फेक दिया और दाएं टुकड़े को बाईं तरफ फेक दिया इस प्रकार तिनके की सहायता से भीम को संकेत दिया की इस बार वह उसके टुकड़े कर के दोनों टुकड़े अलग-अलग दिशा में फेंके। तब भीम ने वैसा ही किया और इस प्रकार जरासंध का वध हुआ। जरासंध का वध करके उन तीनों ने उनके बंदीगृह में बंद सभी 86 राजाओं को मुक्त किया और श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध का राजा बना दिया। सहदेव ने आगे चल के कौरवों के विरुद्ध महाभारत के युध मे पाण्डवों का साथ दिया था।