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भगवद् गीता


दूसरा श्लोक 


धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय कहते है---

                                                                        संजय उवाच 

                                                    द्रष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । 
                                                   आचार्यमुपसङ्ग्म्य  राजा   वचनम ब्रवीत् । ।

   संजय बोले---- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह रचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहे।   
प्रश्न--व्यूह रचनायुक्त पांडव सेना को देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास गए, इसका क्या भाव है?

उत्तर--भाव यह है कि पांडव सेना की व्यूह रचना इतने विचित्र ढंग से की गई थी कि उसको देखकर दुर्योधन चकित हो गए और अधीर होकर स्वयं उसकी सूचना देने के लिए द्रोणाचार्य के पास गए। उन्होंने सोच कि पांडव सेना की व्यूह रचना देख-सुनकर धनुर्वेद के महान आचार्य गुरु द्रोण उनकी अपेक्षा अपनी सेना की और भी विचित्र रूप से व्यूह रचना करने के लिए पितमाह को परामर्श देंगे। 

प्रश्न--दुर्योधन राजा होकर स्वयं सेनापति के पास क्यों गए? उन्हीं को अपने पास बुलाकर सब बातें क्यों नहीं समझा दी?
उत्तर--यद्यपि पितामाह भीष्म प्रधान सेनापति थे, परंतु कौरव सेना में गुरु द्रोणाचार्य का स्थान भी बहुत उच्च और बड़े ही उत्तरदायित्व का था। सेना में जिन प्रमुख योद्धाओं की जहाँ नियुक्ति होती है, यदि वे वहाँ से हट जाते है तो सैनिक व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी मच जाती है। इसलिए द्रोणाचार्य को अपने स्थान से न हटाकर दुर्योधन ने ही उनके पास जाना उचित समझा। इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध होने के साथ ही गुरु होने के कारण आदर के पात्र थे तथा दुर्योधन को उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना था, इसलिए भी उन्हे सम्मान देकर उनका प्रिय पात्र बनना उन्हें अभीष्ट था। पारमार्थिक दृष्टि से तो सबसे नम्रतापूर्ण सम्मानयुक्त व्यवहार करना कर्तव्य है ही, राजनीति में भी बुद्धिमान पुरुष अपना काम निकालने के लिए दूसरों का आदर किया करते हैं। इन सभी दृष्टियों से उनका वहाँ जाना उचित ही था। 
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