भगवद् गीता 1

सम्बन्ध 


पांडवों के राजसू यज्ञ में उनके महान ऐश्वर्य को देखकर दुर्योधन के मन मे बड़ी भारी जलन पैदा हो गई और उन्होंने सकुनी आदि की सम्मति से जुआ खेलने के लिए युधिष्ठिर को बुलाया और छल से उनको हराकर उनका सर्वस्व हर लिया। अंत मे यह निश्चय हुआ कि युधिष्ठिर आदि पांचों भाई द्रोपदी सहित बारह वर्ष वन में रहें और एक साल छिप कर रहें। इस प्रकार तेरह वर्ष तक समस्त राज्य पर दुर्योधन का आधिपत्य रहे और पांडवों के एक साल के अज्ञातवास का भेद न खुल जाए तो तेरह वर्ष के बाद पांडवों का राज्य उन्हें लौटा दिया जाए। इस निर्णय के अनुसार तेरह साल बिताने के बाद जब पांडवों ने अपना राज्य वापिस मांगा तब दुर्योधन ने साफ इनकार कर दिया। उन्हे समझाने के लिए द्रुपद के, ज्ञान और अवस्था मे वृद्ध पुरोहित को भेजा गया, परंतु उन्होंने कोई बात नहीं मानी। तब दोनों ओर से युद्ध की तैयारी होने लगी।

भगवान श्री कृष्ण को रण-निमंत्रण देने के लिए दुर्योधन द्वारका पहुंचे, उसी दिन अर्जुन भी वहाँ पहुँच गए। दोनों ने जाकर देखा -- भगवान अपने भवन में सो रहे हैं। उन्हे सोते देखकर दुर्योधन उनके सिरहाने एक मूल्यवान आसन जा कर बैठ गए और अर्जुन दोनों हाथ जोड़कर नम्रता के साथ उनके चरणों के सामने खड़े हो गए। जागते ही श्री कृष्ण ने अपने सामने अर्जुन को देखा और फिर पीछे की ओर मुड़कर देखने पर सिरहाने की ओर बैठे दुर्योधन दिख पड़े। भगवान श्री कृष्ण ने दोनों का स्वागत सत्कार किया और उनके आने का कारण पूछा। तब दुर्योधन ने कहा -- मुझमें और अर्जुन मे आपका एक सा ही प्रेम है और हम दोनों ही आपके संबंधी है। परंतु आपके पास पहले मैं आया हूँ। सज्जनों का नियम है कि वे पहले आने वाले की सहायता किया करते है। सारे भूमंडल मे आज आप ही सब सज्जनों मे श्रेष्ठ और सम्माननीय हैं, इसलिए आपको मेरी ही सहायता करनी चाहिए। भगवान श्री कृष्ण ने कहा निसन्देह आप पहले आए है; परंतु मैनें अर्जुन को पहले देखा है। इसलिए मैं दोनों की सहायता करूंगा। परंतु शास्त्रानुसार बालकों की इच्छा पहले पूरी की जाती है, इसलिए पहले अर्जुन की इच्छा ही पूरी होनी चाहिए। मैं दो प्रकार से सहायता करूंगा। एक ओर मेरी अत्यंत बलशालिनी नारायणी-सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं, युद्ध न करने का प्रण करके, अकेला रहूँगा। मैं शस्त्र का प्रयोग नहीं करूंगा। अर्जुन! धर्मानुसार पहले तुम्हारी इच्छा पूरी होनी चाहिए। अतएव दोनों में से जिसे पसंद करो, मांग लो!, इस पर अर्जुन ने शत्रुनाशन नारायण भगवान श्री कृष्ण को मांग लिया। तब दुर्योधन ने उनकी नारायणी-सेना मांग ली और उसे लेकर वे बड़ी प्रसन्नता के साथ हस्तिनापुर को लौट गए।
इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से पूछा--"अर्जुन! जब मैं युद्ध ही नहीं करूंगा, तब तुमने क्या समझकर नारायणी सेना को छोड़ दिया और मुझको स्वीकार किया?" अर्जुन ने कहा-- "हे भगवन! आप अकेले ही सबका नाश करने  में समर्थ हैं, तब मै सेना लेकर क्या करता? इसके अलावा बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि आप मेरे सारथी बने, अतः अब इस महायुद्ध मे मेरी उस इच्छा को आप अवश्य पूर्ण कीजिए।" भक्तवत्सल भगवान ने अर्जुन क इच्छानुसार उनके रथ के घोड़े हाँकने का काम स्वीकार कर लिया। इसी प्रसंग के अनुसार भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी बने और युद्ध आरंभ होने के समय कुरूक्षेत्र  में उन्हे गीता का दिव्य उपदेश सुनाया। अस्तु।
दुर्योधन और अर्जुन के द्वारका से वापिस लौट आने पर जिस समय दोनों ओर की सेना एकत्र हो चुकि थी,उस समय भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं हस्तिनापुर जाकर हर तरह से दुर्योधन को समझाने की चेष्टा की। परंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया--"मेरे जीते जी पांडव कदापि राज्य नहीं पा सकते, यहाँ तक कि सूंई की नोक भर भी जमीन मै पांडवों को नहीं दूँगा।" तब अपना न्यायोचित स्वत्व प्राप्त करने के लिए माता कुंती की आज्ञा और भगवान श्री कृष्ण की प्रेरणा से पांडवों ने धर्म समझकर युद्ध के लिए निश्चय कर लिया।
जब दोनों और से युद्ध की पूरी तैयारी हो गई, तब भगवान वेदव्यास जी ने धरतराष्ट्र के समीप आकर उनसे कहा--'यदि आप घोर संग्राम देखना चाहो तो मै आपको दिव्य नेत्र प्रदान कर सकता हूँ।' इस पर धरतराष्ट्र ने कहा--"ब्रह्मऋषि श्रेष्ठ! मैं कुल के इस हत्याकांड को अपनी आँखों से देखना तो नहीं चाहता। परंतु युद्ध का सारा व्रतांत भली भाँति सुनना चाहता हूँ।" तब महर्षि वेद व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान करके धरतराष्ट्र से कहा--"कि संजय आपको युद्ध का सर व्रतांत सुनाएंगे। युद्ध की समस्त घटनवलियों को ये प्रत्यक्ष देख, सुन और जान सकेंगे। सामने या पीछे से, दिन में या रात में, गुप्त या प्रकट, क्रिया रूप मे परिणत या केवल मन मे आई हुई, ऐसी कोई बात नहीं होगी जो इनसे तनिक भी छिपी रह सकेगी। ये सब बातों को ज्यों की त्यों जान लेंगे। इनके शरीर को न तो कोई शस्त्र छू पाएगा और न इन्हे जरा भी थकावट ही होगी।"
यह 'होनी' है अवश्य होगी, इस सर्वनाश को कोई नहीं रोक सकता। अतः अंत मे धर्म की जय होगी।
महर्षि वेदव्यास जी के चले जाने के बाद धरतराष्ट्र के पूछने पर संजय उन्हें पृथवि के विभिन्न द्वीपों का व्रतांत सुनाते रहे, उसी मे उन्होंने भारतवर्ष का भी वर्णन किया तदनंतर जब कौरव पांडवों का युद्ध आरंभ हो गया और लगातार दस दिनों तक युद्ध होने पर पितामाह भीष्म रणभूमि में रथ से गिरा दिए गए, तब संजय ने धरतराष्ट्र के पास आकर उन्हे अकस्मात् भीष्म के मारे जाने का समाचार सुनाया। उसे सुनकर धरतराष्ट्र को बाद दुख हुआ और युद्ध की सारी बातें विस्तारपूर्वक सुनाने के लिए उन्होंने संजय से कहा, तब संजय ने दोनों ओर की सेनाओं की व्यूह-रचना आदि का विस्तृत वर्णन किया। इसके बाद धरतराष्ट्र ने विशेष विस्तार के साथ आरंभ से अब तक की पूरी घटनाएँ जानने के लिए संजय से प्रश्न किया। यहीं से श्रीमद् भगवद् गीता का पहला अध्याय आरंभ होता है अतः महाभारत, भीष्मपर्व मे यह पच्चीसवाँ अध्याय है। इसके आरंभ मे धृतराष्ट्र संजय से प्रश्न करते हैं--

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