हाड़ी रानी

आ धरती गोरा धोरां रीआ धरती मीठा मोरां री। 

चुड़ावत मांगी सैनाणीसिर काट दे दियो क्षत्राणी।। 


1652 - 1680 ई० तक मेवाड़ पर महाराणा राजसिंह का शासन था। इनके सामन्त सलुम्बर के राव चुण्डावत रतन सिंह थे। जिनका विवाह बूंदी के हाड़ा राजपूत सरदार की बेटी से हुआ था जिसे हाड़ी रानी के नाम से जाना जाता है।
शादी को महज सात दिन ही बीते थे। न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आलता। अभी तो शादी के सुनहरे सपनों पर से हकीकत का पर्दा बस हटा ही था विवाहित जीवन का सफर शुरू हुआ ही था की शादी के आठवें दिन सुबह का समय था। राव चुण्डावत रतन सिंह गहरी नींद में थे। रानी सज धजकर राजा को जगाने आई। उनकी आखों में नींद की खुमारी साफ झलक रही थी। वह राजा को निद्रा से प्रेमपूर्वक जगा ही रही थी की इतने मे दरबान आकर वहां खड़ा हो गया। जो कि महाराणा राजसिंह का सन्देश लेकर आया था। जिसमे उन्होंने राव चुण्डावत रतन सिंह को दिल्ली से ओरंगजेब की सहायता के लिए आ रही अतिरिक्त सेना को रोकने का निर्देश एवं आदेश दिया था।


मुगल बादशाह औरंगजेब जब चारों ओर से राजपूतों से घिर गए। उसकी जान पर बन आई थी। उसका बचकर निकलना मुश्किल हो गया था तब उसने दिल्ली से अपनी सहायता के लिए अतिरिक्त सेना बुलवाई। महाराणा राज सिंह को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था। उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने के लिए राव चुण्डावत रतन सिंह को पत्र लिखा और वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र रत्न सिंह के पास पहुंचा। एक क्षण का भी विलंब न करते हुए चुंडावत रतन सिंह ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था।


केसरिया बाना पहने युद्ध वेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचंभित थी। तभी चुंडावत रत्न सिंह कहते है-  हे प्रिय। पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती है। वह शुभ घड़ी अभी ही आ गई। देश के शत्रुओं से दो दो हाथ होने का अवसर मिला है। मुझे यहां से अविलंब जल्द ही निकालना है। हंसते-हंसते विदा दो। पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो चुंडावत रत्न सिंह ने मुस्करा कर पत्नी से कहा।  उनका मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा तो। मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा ? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी अन्तर्द्वंद में उनका मन फंसा था। उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बताई। विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी रानी की तेज आंखों से छिपा न रह सका। यद्यपि चुंडावत रत्न सिंह ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है। उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर। पति विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए। मैं अभी आई। वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गयीं। आरती का थाल सजाया। पति के मस्तक पर टीका लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली। मैं धन्य हो गयीं, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं आप जाएं स्वामी। मैं विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी।  चुंडावत रत्न सिंह ने घोड़े को ऐड़ लगायी। रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखेों से ओझल न हो गया। उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखों से बह निकला। चुंडावत रत्न सिंह अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था। किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कही सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दें?  वह मन को समझाता पर उसका ध्यान बार-बार उधर ही चला जाता। अंत में उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों को रानी के पास भेजा। उसकों फिर से स्मरण कराया कि मुझे भूलना मत। मैं जरूर लौटूंगा। संदेश वाहक को आश्वस्त कर रानी ने लौटाया। दूसरे दिन एक और वाहक आया। फिर वही बात। तीसरे दिन फिर एक आया। इस बार वह रानी के नाम उनके पति का पत्र लाया था। प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं। अंगद के समान पैर जमाकर उनको रोक दिया है। मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं। यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है।
पत्र वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना। उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करुंगा। हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयीं। युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे। विजय श्री का वरण कैसे करेंगे? उसके मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली वीर ? मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे देना। थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना। किन्तु इसे कोई और न देखे। वे ही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना। हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था प्रिय। मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली... स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी। अगले ही पल रानी ने कुछ ऐसा किया जो इतिहास मे अमर हो गया पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपनी कमर से तलवार निकाल,  एक झटके में अपने सिर को धड़ से अलग कर दिया। सिपाही के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका। भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा। उसको देखकर चुंडावत रत्न सिंह स्तब्ध रह गया उसे समझ में न आया कि उसके नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है?  धीरे से वह बोला क्यों यदुसिंह। रानी की निशानी ले आए? यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया। वह फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख से केवल इतना निकला उफ्‌ हाय रानी। तुमने यह क्या कर डाला। संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर। मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।

उनके मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। वह शत्रु पर टूट पड़े। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। जीवन की आखिरी सांस तक वह लड़ते रहे। औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नहीं ही बढऩे दिया, जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया। इस विजय का श्रेय किसको जाना चाहिए राणा राजसिंह को, राव चुंडावत रत्न सिंह को या हाड़ी रानी अथवा उसके बलिदान को।।

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