बर्बरीक का शीशदान
नमस्कार मै सुधीर आज आपको अवगत कराऊँगा महाभारत काल के एक ऐसे योद्धा से जो दुर्भाग्य वश महाभारत के विनाशकालीन महा युद्ध में समलित नहीं हो सके। किन्तु उनके नाम और शक्ति का बोलबाला इतना था की यदि वो युद्ध मे भाग लेते तो 18 दिन तक चलने वाला वह महा विनाशक युद्ध संभवतः ही एक ही दिन में समाप्त हो जाता। वह योद्धा और कोई नहीं बल्कि घटोत्कच्च और मोर्वी के पुत्र तथा पांडव पुत्र गदधारी भीम और हिडिंबा के पौत्र बड़े ही तेजस्वी, महावीर, महाबली बर्बरीक थे। बर्बरीक जिन्होंने अपनी द्रढ़ता, निश्चयता, वीरता और बुद्धिमता से शक्तियां और सिद्धियाँ तो प्राप्त कर ली थी परंतु नियति और अपनी वचनबद्धता के कारण उनका प्रयोग नहीं कर पाए।
वीर बर्बरीक वैसे तो बाल्य काल से ही बड़े ही बुद्धिमान और वीर थे उन्होंने बाल्य काल से योनवस्था तक युद्ध कला की सम्पूर्ण शिक्षा अपनी माँ मोर्वी और दादी हिडिंबा से ली थी किन्तु जब महाभारतकाल के हर योद्धा की भाँति संसार में सबसे वीर और अजय बनने की चाह उनके भी मन में उमड़ने लगी तब उनकी दादी हिडिंबा ने उनका पथ प्रदर्शन किया कि श्री कृष्ण के अलावा इससे आगे का तुम्हारा मार्गदर्शन और कोई नहीं कर सकता उनसे अच्छा और श्रेष्ठ गुरु संसार में और कोई नहीं है। जब बर्बरीक श्री कृष्ण से उन्हे अपना गुरु बनाने और मार्ग दर्शन करने का आग्रह करते है तब स्वयं जगत के स्वामी, तीनों लोकों का ज्ञान रखने वाले वासुदेव, श्री कृष्ण बर्बरीक का मार्गदर्शन करते है और उन्हे बताते है की तुम जिन सिद्धियों को प्राप्त करना चाहते हो उनके लिए तुम्हें गुरु विजय सिद्धसेन ही सही मार्ग दिखा सकते है उसके बाद महाबली बर्बरीक गुरु विजय सिद्धसेन के पास जाकर आग्रह करते है कि आप मेरे गुरु बनकर मुझे सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए मेरा मार्ग दर्शन करें। अतः गुरु सिद्धसेन उन्हे बताते है कि तुम्हें ताल मे जाकर पानी में खड़े होकर तीन दिन और तीन रात सिद्धि मंत्र का जाप करना होगा उसके बाद माँ कामाख्या देवी तुम्हें दर्शन देंगी। जो संसार मे तुम्हें सबसे वीर और अजय होने का आशीर्वाद देंगी। वीर बर्बरीक गुरु सिद्धसेन के निर्देशानुसार अपनी साधना में लीन हो जाते है जिसमे बहुत सी अड़चनें भी आती है किन्तु अंततः महाबली बर्बरीक की साधना सफल हो जाती है और माँ कामाख्या देवी उन्हे प्रसन्न होकर फलस्वरूप तीन बाण प्रदान करती है स्वयं अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया था, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था।
बर्बरीक शक्तियां और सिद्धियाँ प्राप्त कर घर लौटे ही थे कि उन्हे समाचार मिलता है की कौरवों और पाण्डवों के मध्य युद्ध अपरिहार्य हो गया है और यह युद्ध अब तक का सबसे विनाशक महायुद्ध होने वाला है बर्बरीक के मन में भी इस युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुई और वह अपनी माता मोर्वी और दादी हिडिंबा से अनुमति लेते समय उन्हे वचन देते है कि मै हारते हुए पक्ष की और से ही युद्ध करूंगा। क्योंकि माता मोर्वी को यह संदेह था कि पांडवों के पास योद्धाओं और सेना का अभाव है और कौरवों के पास योद्धा भी अनगिनत है और सेना भी बहुत बड़ी है अतः श्री कृष्ण की युद्ध मे कुशल नारायणी सेना भी उन्ही के पास है। किन्तु वह भी इस बात से अपरिचित थी की ‘’ हारते हुए का पक्ष लेने का उनका यह वचन उनके पुत्र को किस दुविधा और धर्म संकट में डाल सकता है जबकि वह इस बात से अच्छी तरह परिचित थी की तीनों लोकों के स्वामी स्वयं भगवान नारायण के अवतार श्री कृष्ण के होते हुए पांडवों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता परंतु यह तो नियति ही थी की वचन लेते समय मोर्वी के मन से यह विचार मानो मिट ही गया था।
महाबली बर्बरीक कुरुक्षेत्र रणभूमि की ओर प्रस्थान करते है अतः वहाँ पहुँच कर वे सभी पांडवों से मिलते है और उन्हे अवगत करते है की वह भी उनके साथ युद्ध मे सम्मिलित होंगे यह सुनकर सभी पांडव बेहद प्रसन्न होते है उसी समय वहाँ श्री कृष्ण का आगमन होता है सभी झुक कर उनका आदर सम्मान करते है और बताते है हमारा पौत्र बर्बरीक भी युद्ध मे शामिल होने आया है किन्तु केशव के मुख पर हल्की मुस्कराहट थी और थोड़े चिंतित भी थे वह तो सब जानते ही थे उन्हे तो भविष्य में घटने वाली हर घटना का आभास था वे मंद मंद मुसकाते हुए बर्बरीक से पूछते है की तुम युद्ध में शामिल होने तो आए हो किन्तु युद्ध किस पक्ष में करोगे क्योंकि दोनों ओर तुम्हारे अपने सगे सम्बंधी है बर्बरीक कहते है की यहाँ आते समय माँ ने मुझे कहा था की हारते हुए पक्ष की ओर से युद्ध करना तो जाहिर है इस वक़्त मुझे अपने दादा श्री युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की ओर से ही युद्ध करना चाहिए क्योंकि इनके पास सेना भी कम है और योद्धा भी। केशव धीमे से मुस्कराते है और बर्बरीक से पूछते है की यदि तुम्हें रणभूमि मे युद्ध के दौरान यह एहसास हुआ की कौरवों की हार हो रही है तो तुम कौरवों की ओर हो जाओगे और उनकी तरफ से युद्ध करोगे। यह सुनकर बर्बरीक अचंभित हो जाते है और कुछ समय के लिए मौन हो जाते है तब भीम, अर्जुन आदि सभी पांडव उनसे पूछते है की बोलो पौत्र उस स्थिति में तुम क्या करोगे। बर्बरीक जो बड़े ही विवश और असहाय से खड़े थे उनकी आखों से आँसुओं की धारा बह निकली थी बड़ी ही दबी सी आवाज में कहते है जी दादा श्री केशव उस समय मुझे कौरवों के पक्ष में ही युद्ध करना पड़ेगा। क्योंकि मेरी विवशता है की मैं वचनबद्ध हूँ की मुझे हारते हुए का ही साथ देना है बर्बरीक के वचन सुनकर सभी पांडव बड़े ही क्रोधित हो जाते है किन्तु केशव और युधिष्ठिर उन्हे समझाते है और बर्बरीक को भी सांत्वना देते है और कहते है की हे पौत्र यदि तुम युद्ध करो ही ना तो। बर्बरीक जो अपने कंधे पर लगी तूणीर में रखे तीन बाणों को पकड़े खड़े थे उनकी आँखों से आँसू रोके न रुक रहे थे कहते है कि हे दादा श्री केशव यही तो मेरी विडंबना है की मैं वचनबद्ध हूँ मैं अपनी माता श्री को वचन देकर आया हूँ की मै हारते हुए की ओर से युद्ध करूंगा तो युद्ध तो मुझे करना ही पड़ेगा। उस पल समय मानो ठहर सा गया था सभी पांडवों के चेहरे पर उदासी छा गई थी। केशव ने परिस्थिति को भाँपते हुए कहा इसका हल अवश्य निकलेगा इस वक़्त आप सब विश्राम कीजिए। किन्तु विषय ऐसा था की सभी पांडवों के लिए रात्रि बहुत लंबी हो गई थी उस रात्रि किसी को निद्रा नहीं आ रही थी, वक़्त काटे नहीं कट रहा था। बर्बरीक पितामह भीष्म से मिलने जाते है उसके बाद युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र के बीचों-बीच एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ जाते है
अगले दिन श्री कृष्ण समस्त पांडवों समेत बर्बरीक के पास आते है और कहते कि जिन सिद्धियों की वजह से तुम्हें तीन बाण-धारी और पूरे संसार मे अजय और वीर कहा जाता है उन शक्तियों के बारे में हमे भी तो कुछ बताओ अन्यथा हमे कैसे ज्ञात हो की जो कुछ तुम्हारे बारे में हमने सुना है वह सत्य है भी की नहीं। श्री कृष्ण तो सब जानते ही थे किन्तु यह तो विधि का विधान था जिसे वो बदल नहीं सकते थे।
बर्बरीक कहते है की हे केशव मेरे पास तीन बाण है जो मुझे संसार मे अजय बनाते है मेरा पहला बाण लक्ष्य को खोज निकालता है चाहे वह संसार के किसी भी कोने मे क्यों न छिपा हो और दूसरा बाण उसी लक्ष्य को भेद देता है और फिर वापिस तूणीर में आ जाते है तीसरा बाण अतिरिक्त है जिसे चलाने की आवश्यकता ही नहीं, किन्तु यदि तीसरे बाण को भी प्रयोग में लाया गया तो पूरे ब्रह्मांड अर्थात तीनों लोकों पर संकट आ सकता है श्री कृष्ण कहते है क्या तुम इसका प्रमाण दे सकते हो, बर्बरीक कहते है कैसे? श्री कृष्ण कहते है कि जिस वृक्ष के नीचे हम खड़े है उसके सभी पत्तों को भेदकर। बर्बरीक सहमत हो जाते है और जिस समय बर्बरीक तूणीर से बाण निकालकर मंत्र सिद्ध कर रहे होते है उस समय श्री कृष्ण बड़ी ही चतुराई से वृक्ष का एक पत्ता तोड़कर अपने पैर के नीचे दबा लेते है। इधर जैसे ही बर्बरीक मंत्र सिद्ध करके बाण को धनुष से छोड़ते है वह वृक्ष के सभी पत्तों को भेदता हुआ कृष्ण के पैर के पास आकर चक्कर लगाने लगता है श्री कृष्ण धीमे से मुस्कराते है बर्बरीक कहते है कि हे दादा श्री केशव शायद वृक्ष का कोई पत्ता आपके पैर के नीचे दबा है आप कृप्या पैर हटा लीजिए ताकि बाण अपना कार्य पूरा कर सके। क्योंकि मैंने बाण को सिर्फ पत्तों को भेदने की आज्ञा दी है तब श्री कृष्ण बर्बरीक को सत्य बताते है कि उन्होंने स्वयं यह पत्ता तोड़कर अपने पैर के नीचे दबा लिया था ताकि वह बाण की शक्ति की परीक्षा ले सके। यह देखकर सभी अचंभित रह जाते है श्री कृष्ण बर्बरीक की बहुत प्रशंसा करते है और कहते है कि हे महावीर यदि मै तुमसे कुछ मांगूँ तो क्या तुम मुझे दोगे। बर्बरीक को आने वाले पल का कतई ज्ञान नहीं था किन्तु सभी पांडवों को आभास हो गया था कि श्री कृष्ण क्या मांगने वाले है बर्बरीक ने केशव के पूछते ही तुरंत हामी भरी और कहा हे दादा श्री कृष्ण यह मेरा अहोभाग्य होगा कि मै आपको कुछ दे सकूँ। वैसे भी मन मे रह रह के यह आ रहा था कि आप माता श्री और दादी श्री के बाद मेरे प्रथम गुरु है आप ही ने मुझे गुरु विजय सिद्धसेन के पास जाने का मार्ग दिखाया था आप ही है जिनके परोपकार से मुझे आज ये सिद्धियाँ प्राप्त हुई है मै स्वयं को बड़ा ही भाग्यशाली समझूँगा की मै आपको कुछ दे सकूँ। आप निःसंकोच होकर मेरे प्राण भी मांग सकते है श्री कृष्ण कहते है सोच लो वत्स मै कुछ भी मांग सकता हूँ बाद में तुम मुकर तो नहीं जाओगे। बर्बरीक बहुत ही भोले स्वभाव से बोलते है हे दादा श्री केशव मैं आपको वचन देता हूँ कि आप गुरु दक्षिणा में जो कुछ भी माँगेंगे मैं बर्बरीक आपको अवश्य दूँगा। श्री कृष्ण भी इस विडंबना में थे कि किस तरह वे उन शब्दों का निर्वाचन करें जो वह बोलने वाले है किन्तु समय की धारा बहे जा रही थी सभी मौन खड़े थे कि अचानक केशव ने बड़ी ही विनम्र आवाज में कहा मुझे तुम्हारा शीश चाहिए वत्स। बर्बरीक उस समय एक निर्जीव पेड़ की भाँति खड़े रहे उनके शरीर का कोई अंग नहीं हिल पा रहा था युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल सहदेव और वासुदेव की आँखों से अश्रुधारा बह निकली थी।
बर्बरीक श्री कृष्ण के सामने आकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए। केशव कहते है क्या हुआ वत्स मैंने कुछ अधिक तो नहीं मांग लिया। बर्बरीक, नहीं दादा श्री केशव आपने तो बहुत कम मांगा है किन्तु मेरी एक इच्छा मन में ही रह गई कि मै ये महायुद्ध देखना चाहता था जो अब असंभव है केशव कहते है हे महावीर तुम्हारी ये इच्छा अवश्य पूरी होगी और केवल यही नहीं तुम इस महायुद्ध के हर पात्र को भली-भातीं देख और सुन पाओगे। इतना सुनते ही बर्बरीक कहते है तो फिर देर किस बात की है कर दीजिए मेरा शीश मेरे धड़ से अलग। कृष्ण कहते है दक्षिणा ली नहीं जाती वत्स दक्षिणा तो दी जाती है यह सुनकर महाबली बर्बरीक अपना शीश धड़ से अलग कर देते है श्री कृष्ण बर्बरीक का शीश कुरुक्षेत्र के समीप एक पहाड़ी पर रखवा देते है ताकि वो पूरा युद्ध देख सके और वरदान देते है कि तुम युगों-युगों तक मेरे श्याम नाम से पूजे जाओगे। आज महाबली बर्बरीक खाटू श्याम जी के नाम से पूजे जाते है सच में बर्बरीक का यह शीश दान एक महान बलिदान था क्योंकि जो शक्तियां और सिद्धियाँ उन्होंने इतनी कठिन साधना से प्राप्त की थी उन्होंने उन्हे प्रयोग भी नहीं किया था और स्वेच्छा से अपना शीश दान कर दिया था। महाबली बर्बरीक खाटू श्याम जी को शत-शत नमन।
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