“काश्यां मरणात्मुक्ति:
मुक्ति: मुक्तीश्वर दर्शनात्” अर्थात् काशी में तो मरने पर मुक्ति मिलती है, किन्तु मुक्तीश्वर में
भगवान मुक्तीश्वर के दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है
भारतीय इतिहास में बहुत से ऐतिहासिक रहस्यमयी मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों का निर्माण करवाया गया है पुराणों में जिनकी अलग-अलग कथाएं उल्लेखित की गई है इतिहासकारों के द्वारा बहुत से मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों के रहस्यों का पता लगाया जा चुका है किन्तु आज भी बहुत से ऐसे स्थल एवं मंदिर है जिनके रहस्य पर से पर्दा नहीं उठ सका है आज हम बात करेंगे ऐसे ही एक स्थल गढ़मुक्तेश्वर के बारे में। राजधानी दिल्ली से लगभग 100 किलोमीटर दूर 'गढ़मुक्तेश्वर' नामक एक शहर है जो हापुड़ ज़िले का एक तहसील मुख्याल्य है। गढ़मुक्तेश्वर मेरठ से करीब 42 किलोमीटर दूर स्थित है यह गंगा नदी के दायीं ओर है। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ लगने वाला गंगा स्नान के लिए मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। कहा जाता है कि महाराज नृग गिरगिट की योनि से यहां मुक्त हुए थे जिसका स्मारक नृग कूप या नक्का कुआं आज भी गढ़मुक्तेश्वर में है। प्राचीन काल से ही गढ़मुक्तेश्वर में साधु संतों का निवास रहा है। बताया जाता है कि बर्बर- शासकों को भारत की सीमा के परे खदेड़ कर सम्राट विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय) ने यहीं गंगा तट पर शांति प्राप्त की थी। महाराज भोज परमार भी गढ़मुक्तेश्वर आए थे। 11 वीं सदी में महमूद गजनी ने भी इस तीर्थ पर आक्रमण किया था। मुगल साम्राज्य के अंतिम काल में मराठों के उत्कर्ष के समय गढ़मुक्तेश्वर में हिंदू धर्म का पुनरुद्धार हुआ और मराठों (सिंधिया) ने यहां एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया जिसे सिंधिया दुर्ग कहा जाता था अतः जिसके खंडहर आज भी मौजूद हैं। यह भी माना जाता है कि इसी दुर्ग के कारण इस स्थान को गढ़मुक्तेश्वर कहा जाने लगा था।
भागवत
पुराण व महाभारत के अनुसार यह कुरु की राजधानी हस्तिनापुर का भाग था। मुक्तेश्वर
शिव का एक मन्दिर और प्राचीन शिवलिंग कारखण्डेश्वर यहीं पर स्थित है। शिवपुराण के
अनुसार 'गढ़मुक्तेश्वर' का प्राचीन नाम 'शिववल्लभ' अर्थात
“शिव का प्रिय”
है, किन्तु यहां भगवान मुक्तीश्वर अर्थात “शिव” के
दर्शन करने से अभिशापित शिवगणों को पिशाच योनि से मुक्ति मिली थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम 'गढ़मुक्तीश्वर' अर्थात ‘गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर’ विख्यात हो
गया। पुराणों में भी उल्लेख है- 'गणानां
मुक्तिदानेन गणमुक्तीश्वर: स्मृत:।'
प्राचीन
समय की बात है महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे। भगवान
शंकर के गण घूमते हुए वहां जा पहुंचे। गणों ने तपस्या में लीन महर्षि दुर्वासा का मज़ाक
उड़ाना आरंभ कर दिया। जिस से क्रोधित होकर महर्षि दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने
का शाप दे दिया। कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर
पड़े और प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना को स्वीकारते हुए महर्षि दुर्वासा ने
उन्हे कहा कि तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित 'शिववल्लभ' क्षेत्र
में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष यानी शिव की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त
हो जाओगे। पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ में कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की। उनकी
तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और
पिशाच योनि से मुक्त कर दिया। तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम 'गणमुक्तीश्वर' पड़ गया। बाद में 'गणमुक्तीश्वर' का अपभ्रंश 'गढ़मुक्तेश्वर' हो
गया। गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है।
गढ़मुक्तेश्वर
को भी तीर्थ स्थानों में शामिल किया गया है अतः इसे काशी से भी पवित्र माना जाता
है, क्योंकि इस तीर्थ की महिमा के विषय में
पुराणों में भी उल्लेख किया गया है और इसी महत्व के
कारण यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा
तक एक विशाल मेला लगता है,
जिसमें लाखों श्रद्धालु आते हैं और
पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान 'गणमुक्तीश्वर' पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं। धार्मिक
कृत्य: यहां 'मुक्तीश्वर महादेव' के सामने पितृों को पिंडदान और तर्पण यानी जल-दान
करने से श्राद्ध करने की ज़रूरत नहीं रहती। पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे
गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर
के परिसर में किया था। यहां कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को पितृों की शांति के लिए
दीपदान करने की परम्परा भी रही है अतः पांडवों ने भी अपने पितृों की आत्मशांति के
लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से
लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था। तभी से यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना
प्रारंभ हुआ। कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते हैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का
सबसे बड़ा मेला माना जाता है।
कार्तिक
गंगा मेले के दौरान लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ गढ़मुक्तेश्वर स्थित प्राचीन गंगा
मंदिर में उमड़ती हैं। यह मंदिर शहर की आबादी से दूर एक छोर पर लगभग 80 फीट
ऊंचे टीले पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिये कभी एक सौ एक सीढ़ी हुआ करती
थी, किंतु अनेक बार सड़क ऊंची होने के कारण अब 84
सीढ़ी ही शेष बची हैं। मंदिर में मां गंगा की एक आदमकद प्रतिमा एवं चार मुख की दूध
के समान सफेद बह्मा जी की मूर्ति एवं शिव लिंग है। प्राचीन गंगा मंदिर का भी रहस्य
आज तक कोई समझ नहीं पाया है। मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर प्रत्येक वर्ष एक
अंकुर उभरता है। जिसके फूटने पर भगवान शिव और अन्य देवी-देवताओं की आकृतियां
निकलती हैं। इस विषय पर काफी रिसर्च वर्क भी हुआ लेकिन शिवलिंग पर अंकुर का रहस्य
आज तक कोई समझ नहीं पाया है यही नहीं मंदिर की सीढ़ियों पर अगर कोई पत्थर फेंका
जाए तो जल के अंदर पत्थर मारने जैसी आवाज सुनाई पड़ती है। ऐसा महसूस होता है कि
जैसे गंगा मंदिर की सीढ़ियों को छूकर गुजरी हों। यह किस वजह से होता है आज तक कोई
नहीं जान पाया है।
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