Alha Udal 'The Great Warrior'
भारत हमेशा से वीरों की भूमि रहा है यहाँ बहुत से वीरों ने इतिहास के पन्नों में अपना स्वर्णिम नाम दर्ज किया है भारत के हर राज्य का अपना-अपना गौरवशाली इतिहास है जिनमें से एक है बुन्देलखण्ड, जो मध्य भारत का एक प्राचीन क्षेत्र है। जिसका प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति है। बुंदेली माटी में जन्मी अनेक विभूतियों ने न केवल अपना बल्कि इस अंचल का नाम भी खूब रोशन किया और इतिहास में अमर हो गए। आज हम बात करेंगे ऐसे ही दो महान वीर योद्धाओं आल्हा और उद्दल के बारे में जिनकी वीरता और अद्भुत साहस के किस्से आज भी बुन्देलखंड की हर गली में लोकगीत के जरिए गूँजते है।
जानिए समय का पूरा इतिहास शुरुआत से अब तक की पूरी कहानी
आल्हा और ऊदल राजा परमालदेव पर जान कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रानी मलिनहा ने उन्हें गोद में खिलाया, उन्हें पाला-पोसा, उनकी शादियां कीं। नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्देल राजा के जांनिसार रखवाले और वफादार सेवक बना दिया था। उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमंडी राजा चन्देलों के अधीन हो गये थे। महोबा राज्य की सीमाएँ नदी की बाढ़ की तरह फैलने लगीं और चन्देलों की शक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। दोनों वीर कभी चैन से नहीं बैठते थे। यहाँ तक की आल्हा का विवाह भी तलवार की नौक पर ही हुआ था। असल में ‘आल्हा’ नैनागढ़ की राजकुमारी सुमना से विवाह करना चाहते थे. सुमना से इसलिए क्योंकि उनके सौन्दर्य की चर्चा दूर-दूर तक थी. दूसरी तरफ सुमना भी ‘आल्हा’ की वीरता के कारनामों से प्रभावित थीं. उन्होंने मन ही मन विवाह का मन भी बना लिया था. किन्तु यह आसान नहीं था. सुमना के पिता ‘आल्हा’ के साथ अपनी पुत्री के विवाह के खिलाफ थे। किन्तु जब ‘आल्हा’ को इस बात की खबर मिली तो वह बारात लेकर ‘नैनागढ़’ पहुंच गये। और फिर उन्हें सुमना के पिता से दो-दो हाथ करने पड़े। युद्ध अपने चरम पर था। ‘आल्हा’ तेजी से नैनागढ़ के सैनिकों को काटते हुए आगे बढ़ रहे थे, तभी सुमना के पिता को पता चला कि उनकी बेटी सुमना इस विवाह की इच्छुक है। इसकी खबर मिलते ही उन्होंने ‘आल्हा’ से संधि कर ली और सुमना का हाथ ‘आल्हा’ को दे दिया।
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राजा परमाल आल्हा और उद्दल को अपने पुत्रों के सामान मानते थे। राज्य के प्रति दोनों भाइयों की निष्ठा पर उन्हें पूरा विश्वास था। रानी मलिन्हा भी दोनों भाइयों को बहुत स्नेह करती थी, और बस यही बात रानी मलिन्हा के भाई माहिल को बहुत खटकती थी। वह आल्हा-उद्दल को हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश करता रहता था, जिसके लिए कई बार उसने षड्यंत्र भी रचे… किन्तु किसी न किसी वजह से वह असफल हो जाता था। एक बार उसने ‘आल्हा’ को राज्य से बाहर निकलवाने का पुख्ता षड्यन्त्र रचा। उसने राजा परमाल को भड़काते हुए कहा कि वह ‘आल्हा’ से अपना प्रिय घोड़ा भेंट करने के लिए कहें। अगर ‘आल्हा’ ऐसा नहीं करता तो इसका मतलब वह आपके राज्य के लिए ईमानदार नहीं है। शुरुआती आनाकानी के बाद राजा परमाल इसके लिए सहमत हो गये। उन्होंने ‘आल्हा’ को बुलाया और अपनी बात रखी। इत्तेफाक से ‘आल्हा’ ने अपना घोड़ा माहिल को देने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, एक सच्चा राजपूत भले ही किसी के लिए अपने प्राण हंसते हुए दे दे, मगर अपने अस्त्र-शस्त्र और घोड़ा किसी को नहीं दे सकता। ‘आल्हा’ का इनकार सुनते ही राजा को माहिल की बात सही लगने लगी। उन्होंने क्रोध में आकर ‘आल्हा’ से राज्य छोड़ कर चले जाने को कहा।
आल्हा की माँ का नाम देवल देवी था। देवल देवी ने जब सुना कि आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या किया तो उसकी आँखें भर आई। उसने दोनों भाइयों को गले लगाकर कहा- बेटा, तुमने वही किया जो राजपूतों का धर्म था। मैं बड़ी भाग्य शालिनी हूँ कि तुम जैसे दो आन की लाज रखने वाले बेटे पाये हैं ।
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उसी रोज दोनों भाइयों ने महोबा से कूच कर दिया अपने साथ अपनी तलवार और घोड़ो के सिवा और कुछ न लिया। सिपाही की दौलत और इज्जत सब कुछ उसकी तलवार है। जिसके पास वीरता की सम्पति है उसे दूसरी किसी सम्पति की जरूरत नहीं।
उनके निर्वासन का समाचार बहुत जल्द चारों तरफ फैल गया। उनके लिए हर दरबार में जगह थीं, चारों तरफ से राजाओं के संदेश आने लगे। कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे मिलने के लिए भेजा। राजकुमार की खातिरदारियाँ और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज खींच ले गई। जयचन्द आंखें बिछाये बैठा था इसलिए उन्होंने कन्नौज पहुँचते ही आल्हा को अपना सेनापति नियुक्त कर दिया।
आल्हा और ऊदल के चले जाने के बाद महोबा में मानो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। परमाल बड़ा ही कामजी शासक था। पड़ोसी राजाओं ने बगावत का झण्डा बुलन्द कर दिया। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान की कुछ सेना सिमता से एक सफल लड़ाई लड़कर वापस आ रही थी। वे महोबा से होकर गुजर रहे थे कि अचानक चन्देलों और चौहानों में अनबन हो गई और लड़ाई छिड़ गई। चौहान संख्या में कम थे। चंदेलों ने आतिथ्य-सत्कार के नियमों को भूलकर चौहानों का खून बहाना शुरू कर दिया, वे इस बात से अपरिचित थे कि मुठ्ठी भर सिपाहियों के पीछे उनके पूरे राज्य पर संकट आ सकता है, आखिर बेगुनाहों का खून रंग लाया। पृथविराज चौहान को जब यह समाचार मिला तो उनके गुस्से की कोई हद न रही। वे तूफान की तरह महोबा पर चढ़ आए और सिरको, जो महोबा का एक मशहूर कस्बा था, को तबाह करके महोबा की ओर बढ़ आए। चन्देलों ने भी फौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर पूरी फौज तितर-बितर हो गयी और राज्य में तहलका मच गया, कि अब किसी भी क्षण पृथ्वीराज चौहान महोबा में आ पहुँचेगा, परमाल अपने किये पर बहुत पछताये। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा पृथविराज युद्ध के नियमों के बहुत पक्के थे उनकी वीरता उन्हें कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत नहीं देती थी। इस मामले में अगर वह नियमों के इतनी सख्ती से पाबन्द न होते तो शायद गौरी के हाथों उन्हें वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उनकी बहादुरी ही उनकी जान की वजह बनी थी। उन्होंने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आ गई। अब चंदेलों में सलाह-मशविरा होने लगा कि पृथ्वीराज से क्योंकर मुकाबला किया जाये। किसी ने कहा, महोबा के चारों तरफ एक ऊँची दीवार बनायी जाए, कोई बोला, हम लोग महोबा को वीरान करके दक्षिण की ओर चलें। राजा परमाल जबान से तो कुछ न कह रहे थे, किन्तु समर्पण के सिवा उनके पास और कोई चारा नहीं था। तब रानी मलिन्हा ने सलाह दी की आल्हा-उद्दल को वापिस बुलाया जाए। वे ही इस विपत्ति का सामना कर सकते है जिस पर पहले तो राजा परमाल ने आना कानी की किन्तु बाद में रानी की सलाह मानकर उन्होंने जगना भाट को आल्हा और उद्दल को बुलाने के लिए भेजा। कन्नौज पहुँचकर जैसे ही जगना भाट ने आल्हा और उद्दल को पूरी वार्ता सुनायी, उन्होंने अपनी माँ की बात मानकर जगना के साथ जाने का निर्णय कर लिया किन्तु एक बार उन्होंने राजा जयचंद से भी इजाजत लेना उचित समझा, राजा जयचंद भी पृथविराज के खिलाफ थे इसलिए उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। आल्हा-उद्दल, उनकी माँ देवल देवी और जगना महोबा के लिए रवाना हो गए। जैसे ही वे महोबा पहुँचे तो मानो सूखें धानो में पानी सा पड़ गया, टूटी हुई हिम्मतें फिर से बंध गयीं। एक लाख चन्देल इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़े थे। राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आये। आल्हा और ऊदल ने दौड़कर उनके पैर छूए। तीनों की आंखों में पानी भर आया जिससे सारा मनमुटाव धुल गया। दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौका नहीं था, वहीं कीरत सागर के किनारे राज्य के सभी सिपाहियों और दरबारियों की राय से आल्हा फौज के सेनापति बनाए गए।
फिर क्या था ‘आल्हा’ ने मोर्चा संभाल लिया, उनके साथ उनके भाई उदल भी थे। कहते हैं कि उदल बिल्कुल आल्हा की परछाई थे। वह भी इतने वीर थे कि सामने से उन्हें मार पाना लगभग असम्भव था। पृथ्वीराज की सेना इस बात को समझती थी. वह जानती थी कि आल्हा को खत्म करने से पहले उन्हें उदल को अपने रास्ते से हटाना पड़ेगा। वे जानते थे कि जब तक उदल खड़ा है, तब तक एक कदम भी आगे बढ़ना आसान नहीं होगा. खैर, वह युद्ध के मैदान में थे, इसलिए किसी भी कीमत पर उन्हें आगे बढ़ना था. इसके लिए उन्होंने एक रणनीति के तहत उदल पर हमला बोल दिया. इसी बीच दुश्मन को मारते हुए उदल पृथ्वीराज के नजदीक पहुंच गये। वह उन्हें मारने वाले ही थे, तभी पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडा राय ने उदल की पीठ पर वार कर उनकी हत्या कर दी. उदल की मृत्यु की सूचना पाते ही ‘आल्हा’ क्रोधित हो उठे. उन्होंने दुश्मन पर अपने प्रहार तेज कर दिए और अंत में पृथ्वीराज को पराजित करने में सफल रहे. यही नहीं ‘आल्हा’ अपने भाई की मृत्यु के प्रतिशोध की आग में पृथ्वीराज चौहान को मारने ही वाले थे, तभी उनके गुरु गोरखनाथ आ गये. उन्होंने कहा कि प्रतिशोध के लिए किसी की जान लेना धर्म नहीं है. गुरु की आज्ञा मानते हुए ‘आल्हा’ ने पृथ्वीराज को प्राणदान दे दिए।
किन्तु, इस युद्ध के बाद वह खुद बैरागी हो गये। ‘आल्हा’ की निस्वार्थ राज्य-भक्ति ने उन्हें लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। जगनिक द्वारा रचा गया आल्हाखंड, आज भी उत्तर भारत के कई राज्यों में वीररस से भरे लोकगीत के रूप में बहुत लोकप्रिय है। छंद के रूप में गायी जाने वाली इस लोक गाथा में ‘आल्हा’ और उदल द्वारा लड़ी गयी 52 लड़ाइयों का वर्णन मिलता है आज भी ‘आल्हा’ जिंदा हैं, फिर चाहे वह लोक गीतों के रुप में ही क्यों न हो। यह भी मान्यता है कि त्रिकुत पर्वत पर मेहर शारदा माता के मंदिर में आल्हा और उद्दल रोज सुबह 2-5 बजे के बीच में पूजा करते है जिस दौरान मंदिर परिसर मंदिर बंद रखता है
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