जब अर्जुन और अश्वथामा ने प्रयोग किया ब्रह्मास्त्र
Mohenjo daro (मोहेनजोदारों)अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था। जिसके समक्ष पूरी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिये थे। युद्ध के पश्चात अश्वत्थामा ने द्रोपती के पाँचो पुत्र और द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया था । वह छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुये वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के शेष बचे पाँचों पुत्रों के सिर भी काट डाले।
अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन को भी उसका यह निर्णय सही नहीं लगा। पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने अश्वत्थामा के सिर को धड़ से अलग करने की प्रतिज्ञा ली। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था। उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप होकर सृष्टि की रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप होकर सृष्टि के सभी जीवों का पालन पोषण करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप होकर राक्षसों का संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?” श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर छोड़ है अतः ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।”
श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। तब माहृषी वेदव्यास जी और श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन अपने ब्रह्मास्त्र को वापिस लौटा लेते है किन्तु जब ब्रह्मास्त्र को वापिस लौटाने के लिए अश्वत्थामा को कहते है तब अश्वत्थामा कहते है कि हे ऋषिवर, हे देवकी नंदन मैं ब्रह्मास्त्र को चलाना तो भली भाँति जानता हूँ किन्तु मुझे इसको लौटाने की विधि ज्ञात नहीं है अतः मैं ब्रह्मास्त्र को वापिस लौटाने मे असमर्थ हूँ मुझे क्षमा करें। तब श्री कृष्ण क्रोधित होकर अश्वत्थामा को कहते है तुमने रात्री के अंधेरे मे पांडव पुत्रों की हत्या करके कुकर्म किया और फिर माना की तुम ब्रह्मास्त्र को लौटाने की विधि नहीं जानते किन्तु उससे होने वाले सर्वनाश से तो अच्छी तरह परिचित थे फिर भी तुमने उसका प्रयोग करने का घोर अपराध किया है अतः तुम्हें इसका दंड तो अवश्य भोगना ही पड़ेगा यह कहकर श्री कृष्ण ने दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया और युगों-युगों तक भटकते रहने का श्राप दे दिया। उसके बाद श्री कृष्ण ब्रह्मास्त्र का निवारण करने के लिए उसे अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर मोड़ देते है जिससे उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु की मृत्यु हो जाती है जिसे बाद मे श्री कृष्ण जीवनदान दे देते है और वही शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित कहलाते है
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अर्जुन और अश्वत्थामा ने चलाया ब्रह्मास्त्र